हिन्दी कहानियां | Hindi Kahaaniyaa

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Hindi Kahaaniyaa by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ तेईस हिन्दी कहानियाँ नतथी। हम तो कहेंगे घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान था जो किसानों के विचारछुन्य समूह में शामिल होने के बदले बेठकबाजों की कुत्सित मणडली में जा मिला था । हाँ उसमें यह शक्ति न थी कि बैठक- बाज़ों के नियम और नीति का पालन करता । इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे उस पर सारा गाँव उंगली उंठाता था । फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है वो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-वोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती । और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फ़ायदा तो नहीं उठाते दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे । कल से कुछ नहीं खाया था । इतना सब्र न था कि उन्हें ठरडा हो जाने दें । कई बार दोनों की जबानें जल गई । छिल जाने पर आलु का बाहरी दिस्सा तो बहुत ज्यादा गर्म न मालूम होता लेकिन दाँतों के तले पढ़ते ही अन्दर का हिस्सा जबान और हलक और वाल को जला देता था और उस भंगारे को मुंद्द में रखने से ज्यादा लैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाय । वहाँ उसे ठणडा करने के लिए काफ़ी सामान थे । इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते । दालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते । व घीसू को उस वक्त ठाकुर की बारात आद आई जिसमें बीस साल पहले वद्द गया था । उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी और माज भी उसकी याद ताजा थी बोला-- वह भोज नहीं सूलता । तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला । लड़कीवालों ने सबको भरपेट पूरियाँ खिलाई थीं सबको छोटे-बड़े सबने पूरियाँ खायीं और असली घी की चटनी रायता तीन तरह के सूखे सांग एक रसेदार तरकारी दही चटनी मिठाई । अब क्या बताऊं कि उस भोज में क्या स्वाद मिला कोई रोक-टोक नहीं थी । जो चीज चाहो माँगो और जितना चाहो




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