प्रेमचंद रचनावली खंड 14 | Premchand Rachanavali Vol. 14
श्रेणी : काव्य / Poetry, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
46.14 MB
कुल पष्ठ :
553
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
प्रेमचंद - Premchand
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनक
रामविलास शर्मा - Ramvilas Sharma
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)16 प्रेमचंक रचनावली-14 सिलिया उसे देखते ही हाय-हाय करके रोने लगी । पयाग ने घबरा कर पूछा-क्या हुआ ? क्यों रोती है ? कहीं गमी तो नहीं हो गयी ? नैहर से कोई आदमी तो नहीं आया ? अब इस घर में मेरा रहना न होगा। अपने घर जाऊंगी । अरे कुछ मुँह से तो बोल हुआ क्या ? गाँव में किसी ने गाली दी है ? किसने गाली दी है ? घर फ्ूँक दूँ उसका चालान करवा दूँ। सिलिया ने रो-रो कर सारी कथा कह सुनायी । पयाग पर आज थाने में खूब मार पड़ी थी । झल्लाया हुआ था । वह कथा सुनी तो देह में आग लग गयी । रुक्मिन पानी भरने गयी थी । वह अभी घड़ा भी न रखने पायी थी कि पयाग उस पर टूट पड़ा और मारते-मारते बेदम कर दिया। वह मार का जवाब गालियों से देती थी और पयाग हर एक गाली पर और झल्ला-झल्ला कर मारता था। यहाँ तक कि रुक्मिन के घुटने फूट गये चूड़ियाँ टूट गयीं । सिलिया बीच-बीच में कहती जाती धी-वाह रे तेरा दीदा वाह रे तेरी जबान ऐसी तो औरत ही नहीं देखी । औरत काहे को डाइन है जरा भी मुँह में लगाम नहीं किंतु रुक्मिन उसकी बातों को मानो सुनती ही न थी। उसकी सारी शक्ति पयाग को कोसने में लगी हुई थी । पयाग मारते-मारते धक गया पर रुक्मिन की जवान न धकी । बस यही रट लगी हुई थी-तू मर जा तेरी मिट्टी निकले तुझे भवानी खायें तुझे मिरगी आये । पयाग रह-रह कर क्रोध से तिलमिला उठता और आ कर दो-चार लातें जमा देता । पर रुक्मिन को अब शायद चोट ही न लगती थी । वह जगह से हिलती भी न थी । सिर के बाल खोले जमीन पर बैठी इन्हीं मंत्रों का पाठ कर रही थी । उसके स्वर में अब क्रोध न था केवल एक उन्मादमय प्रवाह था। उसकी समस्त आत्मा हिंसा-कामना की अग्नि से प्रज्ज्वलित हो रही थी। अँधेरा हुआ तो रुक्मिन उठ कर एक ओर निकल गयी जैसे आँखों से आँसू की धार निकल जाती है। सिलिया भोजन बना रही थी। उसने उसे जाते देखा भी पर कुछ पूछा नहीं । द्वार पर पयाग बैठा चिलम पी रहा था । उसने भी कुछ न कहा । थे जब फसल पकने लगती थी तो डेढ़-दो महीने तक पयाग को हार की देखभाल करनी पड़ती थी। उसे किसानों से दोनों फसलों पर हल पीछे कुछ अनाज बैँधा हुआ था । माघ ही में वह हार के बीच में थोड़ी-सी जमीन साफ करके एक मड़ैया डाल लेता था और रात को खा-पी कर आग चिलम और तमाखू-चरस लिये हुए इसी मड़ैया में जा कर पड़ा रहता था। चैत के अंत तक उसका यही नियम रहता था। आजकल वही दिन थे। फसल पकी हुई तैयार खड़ी थी। दो-चार दिन में कटाई शुरू होनेवाली थी। पयाग ने दस बजे रात तक रुक्मिन की राह देखी । फिर यह समझ कर कि शायद किसी पड़ोसिन के घर सो रही होगी उसने खा-पी कर अपनी लाठी उठायी और सिलिया से बोला-किवाड़ बंद कर ले अगर रुक्मिन आये तो खोल देना और मना-जुना कर थोड़ा-बहुत खिला देना । तेरे पीछे आज इतना तूफान हो गया। मुझे न-जाने इतना गुस्सा कैसे आ गया। मैंने उसे कभी फूल की छड़ी से भी न छुआ था। कहीं बूड़-धैंस न मरी हो तो कल आफत आ जाय। ता बोली-न जाने वह आयेगी कि नहीं। मैं अकेली कैसे रहूँगी। मुझे डर लगता है।
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