प्रेमचंद रचनावली खंड 3 | Premchand Rachanavali Vol. 3

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प्रेमचंद - Premchand

प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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रामविलास शर्मा - Ramvilas Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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16 प्रेमचंद रचनावली-3 सोफिया-मामा यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आता। अगर प्रभु ईसू ने अपने रुघिर से हमारे पापों का प्रायश्चित कर दिया तो फिर ईसाई समान दशा में क्यों नहीं हैं? अन्य मतावलंबियों की भांति हमारी जाति में अमीर-गरीब अच्छे-बुरे लंगड़े-लूले सभी तरह के लोग मौजूद हैं। इसका कया कारण है? मिसेज सेवक ने अभी कोई उत्तर न दिया था कि सूरदास बोल उठा-मिस साहब अपने पापों का प्रायश्चित हमें आप करना पड़ता है। अगर आज मालूम हो जाए कि किसी ने हमारे पापों का भार अपने सिर ले लिया तो संसार में अंघेर क्‍्त्र जाए। मिसेज सेवक-सोफी बड़े अफसोस की बात है कि इतनी मोटी-सी बात तेरी समझ में नहीं आती हालांकि रेवरेंड पिंम ने स्वयं कई बार तेरी शंका का समाधान किया है। प्रभु सेवक- सूरदास से तुम्हारे विचार में हम लोगों को वैरागी हो जाना चाहिए क्यों? सूरदास-हां जब तक हम वैरागी न होंगे दुःख से नहीं बच सकते। जॉन सेवक-शरीर में भभूत मलकर भीख मांगना स्वयं सबसे बड़ा दुःख है यह हमें दुःखों से क्योंकर मुक्त कर सकता है? सूरदास-साहब वैरागी होने के लिए भभूत लगाने और भीख मांगने की जरूरत नहीं। हमारे महात्माओं ने तो भभूत लगाने और जटा बढ़ाने को पाखंड बताया है। वैराग तो मन से होता है। संसार में रहे पर संसार का होकर न रहे। इसी को वैराग कहते हैं। मिसेज सेवक-हिन्दुओं ने ये बातें यूनान के 101८5 से सीखी हैं किंतु यह नहीं समझते कि इनका व्यवहार में लाना कितना कठिन है। यह हो ही नहीं सकता कि आदमी पर दुःख- सुख का असर न पड़े इसी अंधे को अगूर इस वक्‍त पैसे न मिलें तो दिल में हजारों गालियां देगा। जॉन सेवक-हां इसे कुछ मत दो देखो क्या कहता है। अगर जरा भी भुनभुनाया तो हंटर से बातें करूंगा। सारा वैराग भूल जाएगा। मांगता है भीख धेले-घेले के लिए मीलों कुत्तों की तरह दौड़ता है उस पर दावा यह है कि वैरागी हूं। कोचवान से गाड़ी फेरो क्लब होते हुए बंगले चलो। सोफिया-मामा कुछ तो जरूर दे दो बेचारा आशा लगाकर इतनी दूर दौड़ा आया था। प्रभु सेवक-ओहो मुझे तो पैसे भुनाने की याद ही न रही। जॉन सेवक-हरगिज नहीं कुछ मत दो मैं इसे वैराग का सबक देना चाहता हुं। गाड़ी चली। सूरदास निराशा को मूर्ति बना हुआ अंधी आंखों से गाड़ी की तरफ ताकता रहा मानो उसे अब भी विश्वास न होता था कि कोई इतना निर्दयी हो सकता है। वह उपचेतना की दशा में कई कदम गाड़ी के पीछे-पीछे चला। सहसा सोफिया भे कहा-सूरदास खेद है मेरे पास इस समय पैसे नहीं हैं। फिर कभी आऊंगी तो तुम्हें इतना निराश न होना पड़ेगा। अंधे सूक्ष्मदर्शी होते हैं। सूरदास स्थिति को भली-भांति समझ गया। दृदय को क्लेश तो हुआ पर बेपरवाही से बोला-मिस साहब इसकी क्या चिता? भगवान्‌ तुम्हारा कल्याण करें। तुम्हारी दया चाहिए मेरे लिए यही बहुत है। सोफिया ने मां से कहा-मामा देखा आपने इसका मन जरा भी मैला नहीं हुआ। भ्रमु सेवक-हां दुःखी तो नहीं मालूम होता। जॉन सेवक-उसके दिल से पृछो।




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