कसायपाहुंड | Kasaya Pahudam Xii

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Kasaya Pahudam Xii  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( रस ) और पुर्वप्ररूपित बतलाकर स्थानपदका कितने अर्थोमि निक्षेप होता है इस विधयका स्पष्टीकरण करते हुए उसका सामस्थान, स्थापनास्थान, दव्यस्थान, क्षेत्रस्थान, अद्धास्थान, पलिवीचिस्थान, उच्चस्थान, संयमस्थांग प्रयोगस्थान और भावस्थान इन दस प्रकारके स्थानोमें निक्षेप किया है । इन सब स्थानोंका स्वरूपनिर्देश मूलसे जान लेना चाहिए । आगे इन स्थानोमे नययोजना करते हुए बतलाया हैं कि नैगमनय इन सब स्थानोकों स्वीकार करता है । संग्रहनय और व्यवहारनय पलिवीचिस्थान और उच्चस्थानकों स्वीकार नहीं करते । शेष सबको स्वीकार करते हैं । पलिवीचिस्थानक दो अर्थ है--स्थितिबन्धवी चारस्थान और सोपानस्थान। सो इनका क्रमसे अद्धास्थान और क्षेत्रस्थानमें अन्तर्भाव हो जानेसे इसे थे दोनो नय पृथक्‌ स्वीकार नही करते । इसी प्रकार उच्चस्थानका भी क्षेत्रस्थानमे अन्तर्भाव हो जाता है । अत उसे भी ये दोनो नय पृथक्‌ स्वीकार नहीं करते । ऋजुसूत्र नय उक्त दो, स्थापनास्थान और अद्धास्थानको स्वीकार नहीं करते । कारण कि इस नयका विषय वर्तमान समयमात्र है, और वर्तमान समयको विवक्षाम स्थापनास्थान और अद्धास्थान सम्भव नहीं है, क्योकि समय, आवलि आदि कालभेदके बिना उनका निर्देश नहीं किया जा सकता । पलिवीचिस्थान और उच्चस्थान को भी इसी कारण यह नय स्वीकार नहीं करता । शब्दनय नामस्थान, संयमस्थान, क्षेत्रव्यान और भावस्थानकों स्वीकार करता है। अन्य बाहा अर्थकी अपेक्षा किये विना नाम संज्ञामात्र शब्दनयका विपय होनेसे यह नय इसे स्वीकार करता है, सयम- स्थान भावस्वरूप होनेसे इसे भी यह नय स्वीकार करता हैं । क्षेत्रस्थान वर्तमान अवगाहना स्वरूप है और भावस्थान वर्तमान पर्यायकी सज्ञा है अत यह नय इन्हें भी स्वीकार करता हैं। णेप स्थानोको यह नय स्वीकार नहीं करता । इनमेसे इस अर्थाधिकारमे नोआगम भावनिक्षेपस्वरूप चतु स्थानकी अपेक्षा क्रोधादि कपायोंके सोलह उत्तर भेदोकी प्ररूपणा की गई है । इस प्रकार स्थान पदके आलम्बनसे निक्षेंप व्यवस्थाका निर्देश करनेके बाद सोलह सुत्रगाथाओकें आशयकों चूणिसुत्रोहारा स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि प्रारम्भकी चार सूश्रगाथाए” उक्त सोलह स्थानोके उदाहरणपूर्वक अर्थसाधनमे आई है । यथा--चारों ही क्रीधसम्बन्घी स्थानोका कालकी मुख्यतासे उदाहरण देकर अर्थसाधन किया गया है, क्योंकि कोई क्रोध आशय (सस्कार) रूपसे चिरकाल तक अवस्थित रहता हैं और कोई क्रोध सस्काररूपसे अचिरकाल तक अवस्थित रहता है। अचिरकाल तक अवस्थित रहनेवाले फक्रोधघमे भी कोई तारतम्यकों लिए हुए कुछ अधिक समय तक अवस्थित रहता है ओर कोई क्रोध अति स्वल्प समय तक ही अवस्थित रहता है । इस प्रकार कालकी अपेक्षा क्रोधकषायक अवान्तर भेदोंको स्पष्ट करनेके लिये यहाँ पत्थरकी रेखाके समान क्रोध आदि चार उदाहरण दिये गये हैं। दोष मानादि कषायोके जो स्थान लताके समान आदिको अपेक्षा बारह प्रकारके अतलाये हैं वे किस मान, माया और लोभकषायका कैसा भाव है इस बातकों स्पष्ट करनेक लिये दिये गये है । जैसे मानकषायका भाव स्तब्बतारूप हैं । अत. प्रकर्ष और अप्रकर्षरूपसे इसी भावकों स्पष्ट करनेके लिये पत्थरक स्तम्भक समान आदि चार उद हरण दिये गये है । मायाका भाव वक्ता है। अत प्रकर्ष और अप्रकर्षरूपसे उसमे तारतम्य दिखलानेके लिये बासकी गठीली टेढी-मेढ़ी जडके समान आदि चार उदाहरण देकर मायाके अवान्तर भेदोंको स्पष्ट किया गया है । तथा लोभका भाव असन्तोषजनित संक्लेशपना है । अत. प्रकर्ष और अप्रकर्षरूपसे उसमे तारतम्य दिखलानेके लिये कृमिरागक रंगके समान आदि चार उदाहरणोद्वारा उसे स्पष्ट किया गया हैं । आगे उदाहरणो द्वारा क्रोघकबायके जित चार मैदोंको स्पष्ट किया है उनमेसे कोन क्रोघभाव संस्कार- रूपसे कितने काल तक रहता है इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि जो क्रोध अन्तमुंहर्तकाल तक रहता है वह जलरेखाके समान क्रोध है । जो क्रोध झत्यरूपसे अर्धमास तक अनुभवमे आता है. बह बालुकी रेखाके समान क्रोध है । यहाँ तथा आगे क्रोधसावका जो अस्तमुंहर्तसे अधिक काल कहा हैं वह उस जातिके संस्कारकों ध्मान-




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