भारतीय साहित्य में भक्तिधारा | Bharariya Sahitya Me Bhakiti Dhara

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Bharariya Sahitya Me Bhakiti Dhara by सुनील -Sunil

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ सकता है । इस बात मैं ये श्रपनी पूर्ववर्तिनी शेव भक्त कवयिघी कारे- ककाल अम्मैयार से भिन्न है जो सगुण शिव की उपासिका थी श्र जिनकी चर्चा तमिव्ठ साहित्य के प्रसंग में पहले की जा चुकी है। भारत की प्रमुख प्रादेशिक भाषाओं के कवियों की रचनाओं में इस प्रकार भक्ति परंपरा की प्रति विभिन्न रूपों में काम करती जान पड़ती है। कहीं पर यह वात्सल्य भाव को प्रश्नय देती है तो कहीं सख्य साव को अपनाती है और कह्दीं पर दास्यमभाव को ही स्वीकार न्कर लेती है| इसे सबसे बल तब मिलता है जब यद माधुरय भाव का सह- योग प्राप्त करती है द्रथवा इसे श्रद्वेतवाद का समर्थन मिलता है । पहले पहल यह प्रधानतः भक्त कवियों की व्यक्तिगत साधनाश्रों का ही श्राश्रय ग्रहण करती है किंतु पीछे फिर इसे विधिघ भक्ति आंदोलनों का भी मिलने लगता है और कभी-कभी उनमें से कई कवि स्वयं भी उनके प्रवर्तक होने लग जाते हैं । एक प्रादेशिक साइित्य दूसरे पर श्रपना प्रभाव स्वभावतः डालता रहता है श्रीौर ऐसी कार्य-कारण परंपरा कभी- कभी लंबी तक भी बन जाती हैं। किंतु एकाघ बार ऐसा भी देखने में ्राता है कि एक का प्रभाव दूसरे के ऊपर दूरी का विशेष व्यवधान रहते हुए भी पड़ गया है श्रौर कहीं-कहीं दो प्रांतों की सीमाश्रों के मिली रहने पर भी परिस्थिति वश एक का साहित्य दूसरे से भिन्न रद्द जाता है। इसके सिंवाय यहाँ पर यह भी स्मरणीय है कि इन साइित्यों में प्रदर्शित भक्ति भाव श्धिकतर वैष्णव संप्रदाय से ही संबंध रखता है श्रीर विशेष रूप से वहाँ भी श्रीकृष्ण को ही ध्येय बनाता है । किंतु कहीं- कहीं पर इसका रूप शैव झ्रथवा शाक्त संप्रदायों का भी रंग अहण कर लेता है आ्रीर वहाँ या तो दास्य झथवा बात्सल्य के ही श्रधिक उदाहरण मिलते हैं । मक्तिधारा के प्रवाह द्वारा इस प्रकार सारे भारत का ही प्रादेशिक साहित्य श्राप्लावित जान पड़ता है श्रीर इसके प्रभाव से स्थानीय लोक साहित्य तक भी श्रछ्ूते नहीं है । _.... लत्लेश्वरी वाक्यानि पद २२ १०




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