जैन दर्शन और संस्कृति परिषद् [प्रथम अधिवेशन] | Jain Darshan Aur Sanskriti Parisad [Pratham Adhiveshan]
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
262
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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इुछ चिन्तनीय विषय
आज लैंम विद्वानों के लिए विशेष खिन्तन का विषय है कि सभी जेन
सम्प्रदाय अलग-अलग रहते हुए भी एकत्व के धागे में केसे बँध सकते हैं १
ससके अमान में कई ऐसे महत्वपूर्ण काय हैं जो इतने प्रमावोत्पांदक नहीं बन
पा रहे हैं। संवत्सरी और मददावीर जयन्ती ये दो पे तो ऐसे हैं जो समस्त
जनों के लिए मान्य एवं अलन्त महत्त्व के हैं। पर अलग-अलग होने के
कारण दूसरे ज्लोगों में असमंजस पेदा करते हैं। यद्यपि इन वर्षों में महावीर
जयन्ती ती अब एक सामूहिक रूप से मनाई जाने लगी है प्ररन्छ परथधण-
के लिए नकतन की शपेक्षा है। मेरे विचार से संबत्सरी की एक तिथि
लिशिचित हो जानी चाहिये, फिर चाहे उस पर्व को कितने ही दिन मनाया
जाय कोई थापत्ति नहीं ।
क्या इसी तरह अन्य पवाँ तथा ऐतिहासिक स्थलों के लिए भी चिन्तन
हो सकता है १ मेरी तो दृढ़ मान्यता है कि यदि सामूहिक रूप से यद्द काम
प्रारम्म हुआ तो बहुत ही शीघ्र सौहादपूर्ण वातावरण तैयार हो जाएगा |
मैं आशा करता हूँ कि समागप्त विद्वान इन विचारों पर विशेष मनन करेगें
और इस काय को लागे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध होंगे। सभी के सहयोग
क्या श्रम से सफलता निश्चित है ।
अन्तिम अन्तरंग अधिवेशन
विनाक २८-१०-६४ मध्यान्हकालीन समव ( कालकोठड़ी में ) जेन दर्शन
एवं संस्कृति परिषद् का अन्तिम अन्तरंग गोष्ठीं का कायक्रम आचायंश्री के
तत्वावधान में उनके मंगल सूत्ीच्चारण के साथ प्रारम्भ हुआ; ' जिसमें केवल
बिंदवदु-मण्डली एवं साधु-साध्वियाँ आदि ही उपस्थित थे।
शीष्ठी के प्रारम्मकाल में अन्यान्य विद्वानों के शोध-पत्र पढ़े गये--
(१) श्री एल० एम० जीशी है. &., ए0. 9. ठैप्पंतूणाए एवं एांड्टांए
(युनिवर्सिटी ऑफ गोरखपुर ) एव उधर ०0085
( बाचक श्री रामचन्द्र जेन )
(२) साध्वीकी फ़लकुमारीजी -जेन धर्म को कुम्दकुम्द की देन
(३) साध्वीश्नी यशोधषराजी -सहावीर कालीन धार्मिक परम्पराए:
(४) साध्वीश्नी मब्जुलांजी --जेन दर्शन और पाश्चात्य दर्शन
का छलनास्मक अध्ययन
(३) भी अगरचन्दजी नाइडा
प्रश्न ब्याकरण--एक अध्ययन
(वाचक भी मोइनलाल बांठिया )
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