जैन हितोपदेश - भाग 2, 3 | Jain Hitabodh Bhag 2,3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शी ज़ेनहितोपदेश:माग- जो. 39 «:/ सुभापषित'रतावली सुख अवेश सफर हो सदा ता कमान रपरथ पवन गध दर रथ सेगर संमरद्रधी तारणहार श्री +जिनेश्वर देवने नमस्कार करी स्त- परना. हितने माटे हुं सुभापितुं रनावठीनों व्यास्या कूरूंछं ? ! हुं-घमे-आचरण कर, ज्ञानीए निंदेठों .यहदापापनी .... त्याग कर, छुखदाबी समकीतनु संवन, कर; महा दुख बाय: मिथ्याएवुनो ;स्याग, कर, उत्तम जञाननों अम्यास कर, _बतनु सेवन कर अने पांचे इंद्रिंयोलु दमन कर, छीना संगत पण ' स्याग :-कर, तेमज .सदोप्त काम सेवानो सवंदा स्याग कर, र. . खी संदंधी मुंदर देदलु -भतुरु नप देखीने भोगद ! हूं मनमां निर्दोप विचार कर, श्री तीैकर देवनां चरण कमटनी सेवा कर, सदू- रुनी सट्टा, भक्ति, कर वजन मकारना शुद्ध तपुँ सेवन कर. अने _ जीभने,सश कर, .तेमन हे भाइ! राग द्रेप. सहित सब कपायनों हूं (कालीधी) त्याग कर, ? है भद्र:!.तुं सर्वे -नीवोमां दया भाव रास्य, सत्य वाणी दद 'परघन अने अन्रह्म सेवानों स्वेथा त्याग कर, तेपन दुगेततिदायक प्ररिह मूच्छाने त्यज. ४. ए-, सबदा श्रेष्ठ वेराग्यने भज; सुक्तिदायक निय्र॑य सुनिनो संग कर; अने दुनेनोनो संग, त्यजी दे, दे मिंतरे ! हूं वीतराग 'देवनी भार्वथी भक्ति कर. के“ - :-




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