दुर्वासातृप्तिस्वीकार नाटक | Durvasatriptiswikar Natak

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Durvasatriptiswikar Natak by शिवदत्त शर्मा - Shivdutt Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११) ( स्थान-दु्ोसा ऋषीश्वर बा छाथस ) ( झट चिचारते छुप ) झासन पर दुर्घासा ऋषि चिराजमान हैं घोर छासपास शान्तिवर्त्सा झौर सत्यघ्त दो शिप्य खड़े दें । एि -« श्हु पन्तिचत्सा-ए दाथ जोड़कर ) श्रीशुर्देव ! झाज किस विचार में छंगे हुए हें। दमारे पाठ का समय आगया है | सत्यन्नत-अ( घीरे से ) अरे मित्र ! -ब्डपिछुल में रदते हैं सो रात दिन पढ़ना छी पढ़ना दे । कमी तो अझनध्याय का सी छानद्‌ सनाने दें। शान्तिवर्त्सी-( ईँसता हुआ ) रोकता दे। दुवीस्ा--चत्ल [जे भी जानता हू कि तुम्हारे पाठ का समय छागया । पर मैंने ध्याज स्वप्न में सद्दाराज दुर्योधन को देखा सो झाशा करता हूँ दि प्याज 'उनसे मिंत्तना दोगा । गे (नेपथय सरें झब्द ) दुवी सा-चत्स ! द्ारपर जाकर देखो कोन दे £ सवत्यघ्त-[जो झान्ञा । बाहर जा राजर दुर्योधन को देख लिंचे- चदन करता दे कि महाराज ! छस्तिनापुर च्हे सधघीश राजा डुर्योधन घ्याप के द्दोन के द्तिये पधारे. हें । सच ा-वत्स ! शीघ्र लाया 1 ( राजा टुर्घोधन च्या बछषि दशिष्यस्ाइित घचेश ) क डुधाघधन-चऋषि चो- देखकर ( घ्ाप्टरी ध्याप 2 ध्यद्दों तपस्या . की मदिमा ध्यद्धुत दे । इनको -देखते- दी सन. को ब्मत्यलत अखन्नता अत




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