प्रतीक का उद्गम और विकास | Pratik Ka Udgam Aur Vikas
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
35 MB
कुल पष्ठ :
732
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रतीकवादी दर्शन के क्षेत्र ओर प्रकार ,
की धारणाशं का पूर्ण हृदयंगम केवल मात्र नैतिक आदर्शों के द्वारा नहीं
हो सकता है । इसी प्रकार दूसरा वर्ग उन विचारकों का है जो धार्मिक दर्शन
को केवल मात्र भौतिक ्नुमव तथा प्रयोग का विकसित रूप मानते हैं ।
इस सत के पोषक ली रो ( 1.6 १०८ ), विलियम जेस्स और बटरन्ड
रसल आदिं विद्वान हैं । इन विचारको ने ईसाई धर्म की अनेक रूटियों एवं
सान्यताओं का विश्लेपण॒ करने के वाद इस निष्कर्ष को सामने रखा है कि
चघार्मिक प्रतीको का सर्वप्रथम महत्व उनके रथ में समाहित है जो अनुभव
और प्रयोगात्मक विंधि के द्वारा विकसित हुए हैं । केवल मात्र अनुभव ही
किसी प्रतीक की “सत्यता' का मापदण्ड है ।
इस सिद्धान्त के प्न में कहा जा सकता है कि इसका क्षेत्र अत्यन्त
व्यापक है, क्योकि शान का आरम्भ एवं विस्तार श्रनुभव पर ही आश्रित
है | परन्तु उसका क्षोतर, जैसा कि इन विचारकों ने बताया है केवल मात्र
भौतिक ही है, और मै किसी सीमा के बाद इससे सहमत नही हूँ । जहाँ तक
मौतिकता का प्रश्न है, उससे मेरा कोई मतमेद नहीं है । परन्ठ अनुभव का
लेत्र अत्यन्त विस्तृत है । वद्द केवल भौतिक प्राचीरो के शझ्रन्दर ही सीमित
नहीं है । उसका क्षेत्र भौतिकता से परे तात्विक एवं झ्रमौतिक क्षेत्र की ओर
भी उन्मुख है । इस चषेत्र से आाकर अनुभव, भौतिकता की परिधि को छोडकर,
अनुभूति ( 10८01000 ) के क्षेत्र मे प्रवेश करता है । इस दृष्टि से धार्मिक
प्रतीक जहाँ झ्नुमव की परिधि को स्पर्श करते है, वहीं वे किसी न
किंसी अनुभूति के द्वारा दार्शनिक तत्व-चिंतन की छुठश्रूमि भी प्रस्तुत
करते हैं ।
ततएव धार्मिक प्रतीकवादी दर्शन का ध्येय अनुसूतिपरक श्रदृश्य “सत्य
का साक्षात्कार कराना है । “सत्य” की प्रतीकात्सक झमिव्यक्ति भौतिक क्षेत्र से
ग्रहण तो की जाती है पर उस प्रतीक का दार्शनिक पक्ष “तत्व चितन” अथवा
तदश्य चषेत्र की व्यंजना करता है। इस दृश्यमान क्षेत्र से अदश्यसान तात्विक क्षेत्र
तक एक क्रमागत सम्वन्ध है जिसमे नैतिक, ाध्यात्मिक एवं अनुमवपरक भौतिक
जगत् का भी अरट्टट सम्बन्ध है । दृश्य का यहाँ पर तिरोमाव नहीं है, पर उसका
उन्नायक स्वरूप ही य्राप्त होता है । “सत्य” का स्वरूप विश्वास ( 2160 ) की
१--इस विचारधारा को अेजी मैं ?८88002 पं. की सज्ञा ढी गई हैं जिसका
भारतीय चार्वौक मत से भी सम्बन्ध ज्ञात होता है ।
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