पर्वाधिराज के पुनीत सन्देश | Parwaderaj Ke Punit Sandesh
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
158
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( हे )
कामकुम्भ ज्ञान की तुलना कर ही नहीं सकता । श्रौर सभी प्रकार के
मनोभीप्सित को प्रदान करने वाला चिन्ताभणि भी इसके समक्ष
नगण्य एवं जघन्य ही ठहरता है ।*
भौतिक विज्ञान ने आज मानव को वाह्म हष्टि से शक्तिशाली
बना दिया है। श्राज का सानव पख नही होने पर भी स्वच्छन्द
आकाश मे विहरण कर सकता है। समुद्रो के श्रन्तस्तल को विदीरं'
कर सकता है । यह ताकत श्राज पौद्गलिक ज्ञान के बल से मानव
ने सहज ही प्राप्त करली है। जब बाह्य ज्ञान की भी इतनी विराट
शक्ति है तो श्राम्यन्तर ज्ञान का तो कहना ही कया *
ज्ञान, भ्रज्ञान अर धकार को नष्ट कर हृदय-मन्दिर मे ज्ञान की
सहस्त्रो रश्मियो को वितरित्त करता है ।
“ज्ञान मनुष्य जीवन का सार है ।”*
ससारी जीवात्मा विषम भाव के माध्यम से नानाविध सबलेशो
से सक्लिष्ट रहता है । उन दुखो को जड मुल से उखाडने वाला
ज्ञान ही है ।
झाह्मा का सर्वोपरि गुण ज्ञान है । जीव का लक्षण ही उपयोग
या ज्ञान बतलाया गया है । शास्त्रकारो ने स्पष्ट शब्दों में कहा है--
जीवों उवधोग लक्खणो” .. (उ०)
जीव उपयोग लक्षण वाला है । +
ज्ञान मागे दर्शक है, ज्ञान झात्म-सुख का साधन है । ज्ञानी को
कभी दु ख तथा भय हो ही नहीं सकता । भारत के पुराने राजनीतिज्ञ
कौटिल्य ने क्या ही सुन्दर भाव व्यक्त किये है--
१--न ज्ञानतुल्य किल कत्पवृक्षो,न ज्ञानतुल्या किल कामघेनु. ।
न त्तानतुल्य: किल कामकुम्भो, ज्ञानेन चिन्ताम रिरप्प तुल्य ॥
र-खाण णरस्स सारी (दर्शनपाहुड, श्राचायंकुर्द-कुर्द)
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