सुमित्रानंदन पन्त | Sumitra Nandan Pant

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Sumitra Nandan Pant by डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चित्ररेखा श्र गुझ्नरित कर दिया । किन्तु इस शुष्क समय में--( 81161 88 ) कला का अस्तित्व लोप दो जाने के कारण उसमें भी प्लेटफार्म काव्य का आधिक्य था । अवध के अन्दिम अधिपतियों की भाँति व भी कुछ कवि महोदय अपनी समस्त भावनाओं को झन्तमुखी करके “योग से भी अधिक कठिन परनारी संयोग” में तल्लीन थे । इस व्याथक झावत्त न-प्रवत्तन को दो भावुक युवक चुपचाप देख रहें थे-एक वज्ञ देश के क्रान्तिमय शस्य श्यामल बाताबरा में उच्छुद्डल गति से घूमता हुआ कभी-कभी अबाध स्वर में चीत्कार कर उठवा था 'जागो फिर एक बार'--दूसरा कुछ सद्ोचशील प्रकृति का था; वद्द कूमाचल के दरिताभ अख्वल में मु छिपाये छापने उमड़ते हुए हृदय को संयत करके कोमल स्वर में कभी-कभी शुनगुनाया करता था-- कसणु-क्रव्दून करने दो; श्रविरल-स्नेद-श्रश्नु-जल से मा | मुझको मलमल धोने दो । यद्यपि इससे पूव इस झोर सफल संकेत कविवर प्रसादजी मे कर दिया था, परन्तु उसी समय उनकी प्रतिभा के दूसरी शोर प्रयृत्त हो जाने के कारण, उनके लिए यही कद देना सद्गत होगा कि “बलि घोई कीरतिं-लता कण कीन टू पात ।” इसके छानन्तर समय पाकर दोनों ही ागे बढ़--एक ने स्वच्छन्द होकर मुक्त छन्द मे अपने विद्रोही गीत गाए -दूसरे ने सट्डष से दूर हटकर वत्त मान के रख लेकर भविष्य का एक छायाचित्र खींचा और उसी के अनुसार अपनी स्वर-साधना की । तो यदद दूसरे कविकुमार हमपरे पन्तजी ही हैं। प्रकृति के न्तरज्ञ और बदिरज़ सौन्दर्य से ही इनके स्वभाव का निर्माण हुआ हे । इसी कारणु-- सरलपन दी है इमका मन निरालापन है श्राभूषन । कवि मे झपनी कला के सचध्श ही धपने व्यक्ति के निर्माण का भी सफल प्रयत्न किया दै। गौर ब्ण मांसल-सा शरीर घुँ घराले




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