कल्याण - भाग 1 (अग्निपुराण ) | Kalyan - Vol 1 (Agnipuran)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
49 MB
कुल पष्ठ :
766
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)+ अभ्निपुराणका संक्षिप्त परिचय +
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जगतकी सृष्टिके आदिकारण श्रीहरि अत्रतार लेकर
घर्मकी व्यवस्था और अधर्मका निराकरण ही करते है ।
भगवान् विष्णुसे ही जगत्की सृ्टि हुई । प्रकृतिमें
भगवान् विष्थुने प्रवेश किया | क्षुन्थ प्रकृतिसे महत्तत्तर,
फिर अहंकार उत्पन्न हुआ । फिर अनेक लोकोका
प्रादुर्भाव हुआ, जहाँ स्वायम्मुव मनुके बंशाज एवं कश्यप
आदिके बंशाज परिव्यात हो गये । भगवान किष्थु
आदिदेव हैं और सबपूज्य हैं । प्रत्येक साघककों
आत्म-कल्याणके लिये विधिपूषक भगवान् त्रिष्णुका
पूजन करना चाहिये । भगवान्की पूजाका विधान क्या
है, पूजाके अधिकारकी प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है,
यन्नके लिये कुण्डका निर्माण एवं अग्निकी स्थापना किस
तरह की जाय, दिष्यद्वारा आचार्यके अभिषेकका विधान
क्या हैं तथा भगवान्का पूजन एवं हवन किस प्रकार
सम्पन किया जाय, इसका विस्तृत त्रणन अग्निपुराणमें
हैं। मन्त्र एवं विषिसहित पूजन-हत्न करनेवाला अपने
पितरोंका उद्घारक एवं मोक्षका अधिकारी होता हैं |
देव-पूजनके समान महत्त्व ही देवाल्य-निर्माणका हैं ।
देवालय-निर्माण अनेक जन्मके पापोकों नए कर देता है ।
निर्माण-कार्यके अनुमोदनमात्रसे ही विष्णुघामकी प्राप्ति-
का अधिकार मिल जाता है। कनिष्ठ, मध्य और श्रेष्ठ
इन तीन श्रेणीके देवालयोंके पाँच भेद अग्निपुराणमे
* बताय गय हैं--- १. एकायतन तथा २. त्रयायतन, ३.«
पश्चायतन, ४: अष्टायलन, 5. पोडशायतन । मन्दिरोका
जीर्णोद्धार करनेवालेको देवालय-निर्माणसे दूना फल
मिलता हैं । अभ्निपुराणमें विम्तारसे बताया गया है कि
श्रेष्ठ देव-प्रासादके लक्षण क्या हैं |
देवालयमें किस प्रकारकी देव-प्रतिमा स्थापित की जाय,
इसका बड़ा मूशष्म, एवं अत्यन्त विस्तृत वर्णन इसमें हैं ।
झालग्रामशिला अमेक प्रकारकी होती है | द्वि-चकऋर
एवं श्वेतब्रण शिला 'वासुदेव' कहलाती है, कृष्णकान्ति
एवं दी -छ़िद्रयुक्त 'नारायण' कड़लाती है । इसी प्रकार
उसमें संकपण, प्रयुम्न, अनिरुद्ध, परमेष्री. विष्णु. नरसिंह,
बाराह, कृम, श्रीचर आदि अनेक प्रकारकी शालग्राम-शिलाओं-
की विदाद वर्णन हैं। देवालयमे प्रतिष्टित करनेके लिय भगवान्
तरासुदेवकी, दशावतारों की, चण्डी, दुर्गा, गणेश, स्कन्द आदि
देवी-देवताओकी, सूर्यकी, ग्रहोंकी, दिक्पाल, योगिनी एबं
शिवलिड् आदिकी प्रतिमाओक श्रेष्ठ लक्षणोंका वर्णन
हैं । देवालयमें श्रेष्ठ लक्षणोंसे सम्पन श्रीविग्रहोंकी स्थापना
सभी प्रकारकें मड़लॉंका विधान करती है । अग्नि-
पुराणोक्त त्रिषिके *अनुसार देवालयम देत्र-प्रतिमाकी
स्थापना और प्राण-प्रतिष्ठा करानेसे परम पृण्य होता है ।
श्रे्ट साथकके लिये यही उचित हैं कि, अत्यन्त जीर्ण,
अड्लीन, भान तथा शिलामात्रावशिष्ट ( विशष चिह्नोंसे
रद्वित ) देव-प्रतिमाका उत्सबसहित विसर्जन करे और
टेबालयमें नवीन मूर्तिका न्यास करे । जो देवालयके साथ
अथवा उससे अलग कूप, वापी, तड़ागका निर्माण
करवाता या वृक्षारोपण करता है. वह भी बहुत पुण्य-
का लाभ करता है |
नारततपेमें पश्चदेवापासना अति प्राचान है । गणठा,
शिव, बक्ति, विष्णु और सये थे. पँचों देे
आदिंदेव भगवानकी ही पाँच अभिव्यक्तियाँ हैं; परत
सब तत्त्वत: एक ही हैं । गणपति-पूजन, सर्य-पूजन,
दिव-पूजन. टेवी-पूजन और त्रिष्यु-पूजनर्क महत्त्वका भी
अग्निपुराणमें स्थान-स्थानपर प्रतिपादन हुआ हैं |
साघनाके क्षेत्र श्रेष्ठ गुरु, श्रेप्ठ मन्त्र, श्र
शिष्य और सम्यक् दीश्ताका बड़ा महस्त्र है । जिससे
शिष्पमें ज्ञानकी अभिव्यक्ति करायी जाय, उसीका नाम
“दीक्षा हैं । पाश-मुक्त होनेके लिय जीवकों आचाय
से मन्त्रारापनकी दीक्ा लेनी चाहिय । सबिधि दीक्षित
दिष्यको दिवत्वकी प्रामि शीघ्र होती है ।
जहां मक्त-मन-बाज्छा-कल्पतरु भगवानके सिद्ध श्री-
न्रिग्रहोंके देवालय हैं, अथवा जहाँ सबलोकवन्दनीय
श्रीहरिके प्रीत्यर्थ ऋषि-मनियोंनि कठिन साधना की है.
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