श्री भाष्य खंड -1 | Shri Bhashya Khand-Vol-I

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Shri Bhashya Khand-Vol-I by रामानुजाचार्य - Ramanujacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हैं। शख चन गदा पदमुधारी चतुर्मुज, किरीटादि दिव्य झाभूदणों से सुर््जित मे शी भू लीना देवी सहित विराजते है । मत्स्य, कूमं, सिह, वराह, परशुराम, श्रीराम, वलभद, थरीकृष्ण, भ्ीर कदिक उनके युखय श्वतार हैं ! इनमें भी मुश्य गोसा, पूर्ण, बाश आदि. भनेव भेद है । भगवदवतार कर्म प्रयोजन से नहीं होन स्वेष्छा से होते हैं । दुष्कतों का विनाश और साधुम्रा का परिभाण ही प्रवतार सचधिनी इच्छा है । क जीव, ग्रहमा और समाव चेतन है धौर ब्रह्म का शरीर है, किन्तु ब्रह्म विभु हैं जीव घणु है 1 ब्रह्म,जीव मे सजातीय विजातीय भेद नहीं हैं श्रपितु स्वगत भेद है। ब्रह्म पं हैं, जीव खण्डित है, ब्रह्हा ईश्वर है; जोव दास है । मुक्त जीव भी इंशवर का दास है। जोव कांप है, ईश्वर कारण हैं, दोनो ही स्वय प्रकाथ, चेतत ज्ञानाश्रय श्रोर आत्मस्वप हैं । जीव देहेग्द्रिय मन प्राणादि से भिन्न हैं। जीव नित्य है उसवा स्वरूप भी नित्य है । मीव प्रत्येक शरीर में भिन्न है, । स्वाभाविक रूप में सुखी है कि तु उपाधिवश उसे ससार मोग प्राप्त होते हैं । भगवान वे दास्त्व की प्राप्ति ही जीव की मुक्ति है वेकुण्ठ में श्री, भू लोला सहित नारायण को सेवा करना ही. परमपुरुपार्य है । प्राकृत देह विच्युत हो जाने पर भप्राइत देह से नारायण के समान मोग प्राप्त करना ही मुक्ति है । म्रह्म के साथ प्रभिप्रता प्राप्त करना कदापि सभव नदी है, क्योकि जीव स्वरुपत+ नित्य, नित्यदास, नित्य प्रणु है। मुक्त जीव में भाठ़ो गुणों का म्रादिमावि होता है । ्‌् भगवान नारायण भू हैं उनके थी. चरणों में श्रात्म-समर्पण करने से ही जीव वो. वास्तविक छान्ति मिल सकती है । श्रवंस्व निवेदन करने से दो प्रमु को पा प्राप्त हो सबही है तभी वे जीव का वरण वबरते है (अपनाते हैं) प्रभु के अनुकूल, आचरण करने वा सकहप, प्रतिद्रल श्राचरण वा वजन तथा सब विधियों वो पयाप कर उनकी रस होना ही समर्पण सुन्यास या अपत्ति है । एसी प्रपत्ति था स्पाहुविया से भगददावाप्ठि होती है । सर्प पल (ध् इस समय इस संप्रदाय में इडगल बोर तिजुल दो मत दुष्टिपत होते हैं जो कि-- ही बंप्साबी में वियाद रूप से मचलित हैं । दोनों हो भपने को प्रथम, की होशिप' वा दावा करते हैं कोर उस पल में श्रपने भमाणा प्रस्तुत करते हैं, किन्तु अने दृष्टि से विचार मरने पर और थाचायें चरण के सिद्धान्त का मतन शरीर” करन पर दोनों ही विचारधाराधो की प्राचीनता सिद्ध हो जाती है




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