हिंदी श्रीभाष्य - भाग 8 | Hindii Shriibhaashhya Vol.8

Hindii Shriibhaashhya Vol.8 by शिवप्रसाद द्विवेदी - Shiv Prasad Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( हू कारण सर्वेज् तथा स्वग्चर परमात्मा ही हें । यह भी कहना ठीक हैं क्योंकि वह जगत का कारण भी जीव से मिनन नहीं है । क्योंकि “इस जोवके साथ स्थयं प्रवेश करके; तथा श्वेतकेंतो तुम भी वही डा इपय दि उुपयोंपें जिसे कारण रुप से बतलाया गया है, उसीका जीव के सामानाधिकरण्यरूप से निर्देश किया गया है । श्ौर यह वही देददत्त हैं । इत्यादि सामानाधिकरण्य वाक्यों में देख जाता है कि सामानाधिकरण्य वावय एकस्व के प्रतिपादक हंसते है । झौर जीवकी सी ईक्षण क्रिया पुवेक सृष्टि ससंभव नहीं हो सकती है । इसीलिए ब्रह्मा ज्ञानी मोक्ष को प्राप्त करनलेता है । इत्यादि श्रतियों में जोव का प्राप्य जड़ प्रकृति के संसग (सम्बन्ध; रहित स्वरूप को बतल.या गया है । जड़ प्रकृति के. संसर्ग (सम्बन्ध) से रहित स्वरुप का लक्षण वतलाते हुए श्रुति कहती है कि उस अवस्था में जीव “सत्यस्वरुप, ज्ञानस्वरुप श्रौर श्रनन्तस्वरूप ब्रह्म (ब्यापक) हो जाता है । इसलिए उसस्प की प्राप्ति को ही मोक्ष कहते हैं । छान्दोग्य[; श्र ति. वतलाती है कि जवतक शरौर का सम्बन्ध बना रहत। है, तत्व तक जीव के भ्रिय; श्रप्रिय, रूप दुःख एवं सुख का सम्बन्ध समाप्त नहीं होता घौर निश्चय हीं जंव वह शरीर के सम्बन्ध से रहित हो जाता है उस समय उसे श्रिय झप्रिय रूप सुख दुःख स्पर्श नहीं करते” श्रतएव भ्विद्या (श्रज्ञान ) से रहित स्पखूप हो जीव का प्राप्यखूप से प्रारम्भ करके श्रानन्द वल्ली उसका श्रानन्दमय रुप से उपदेश देती है + वह इस प्रकार से है-




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