वैचारिकी | Vaichariki
श्रेणी : उपन्यास / Upnyas-Novel
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
497
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शई आलोचना श्छ
हुई कि उन्होंने मुह पर कपडा चाँध लिया आर असली नाम का 'प्र' लेकर नकली
नाम प्रज्ञाचकु रख कर ही साहित्य के भंदान में क़दम रख सके 1”
( 'हुस' , मई, रै६५१ )
उपर्युक्त आरोप का उत्तर दिया डॉ० रागेय राघद ने । लपनी पुस्तक
“््रगत्ति्रील साहित्य के मानदष्ड' में उन्होंने लिखा
“तो यह पत्ता चला कि डासटर साहब के तक के अनुसार जब कोई नाम
यदलशर लिखता हैं वो वह डरता है । तब रामविलात जो जब अगिया बैताल,
निरजन, अशोक आदि नामों से लिखते थे तद वे डरते थे । या तो डाकंटर साहब
रो अपनी नौकरी का डर रहा होगा या उन्हें बसे साहित्य को स्वीकार करने में
ज्ञेंप होगी । जब वे घासलेटो साहित्य को, पार्टी दस्तावेजों को छम्दवद्ध करके रख
रहे थे और उससे जनवादों कला का दम घोट रहे थे तब शायद उर्हें अपने डाक्टर
जेसे भारी-भरकम साम के बदनाम होने का डर था, बयोकि खडोदोलो को यहू
कविताएँ जो आधुनिक प्रचलित दॉती में लिपी गई है पते पर उनका डाक्टर
दयोभित है #”
इस ध्रकार के संकडों उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनमें आहत क्षोम,
दुराग्रह, आवेश और भृणोत्पादक दलीलो वा प्रश्नय छिया गया है। एक ही विचार-
धारा और सम सिद्धान्तों के सम्मानित छेखको में इस तरद के विवेक्हीन तकें ओर
कटूक्तियाँ पेदा की जा रही हे कि जिससे सवी्ण विचार-दून में ही सिमट कर
म्रगतिवादी समीक्षा सबंधा एकागी और विष्वसक होती जा रही है।
और भी कितनी ही खामियाँ हे जिन्हें नजरन्दाज नहीं किया जा सकता--
१ रूसी मान्यताओ को लेकर चलने के कारण प्रगतिवाद झपनी भारतीय
जीवन-व्यवस्था मे पूर्णेरपेण गृहीत न हो सका, पर इसके समर्थकों ने इसके सामान्य
गुणों के लुम्बेलम्दं भाप्य वर हमारे देशकाल की विशिप्ट परिस्थितियों पर इसे
भ्रवरस्ती थोपने का प्रयास किया है।
२ प्रत्येब कलाकार अपने युग से सदद आगे होता है। उसकी प्रतिभा
निर्माणोन्मुख और मघपों को चीरती हुई सहज गतिशील होती है, फिर सगत-
लमगत तकों द्वारा भाचीनों वा मूल्य घटाना अयवा तात्तालिक परिस्थितियों की
अवहूलना कर उनके कृतित्व वो कसी खास पंसाने से नापजोख करना सरवया
बद्ामनोय है ।
डे शशाइवत” और 'चिरन्तन' से चिडनें दाले नासमझो द्वारा प्राचीन
श्रेष्ठ साहित्य तक को आय के उयडे, दिशाहीन साहित्य की तुलना में घटिया सिद्ध
करना या उन्हें पृथक करने दाली दिमाजक रेखाएँ सोचना ( वयोकि उसमें उनका
अमीप्ट या निश्प्टि मान्यताएँ नही हे ) अपनी प्राथवान साहित्यिक पूजो को बिल्कुल
चौपट करना है।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...