वैचारिकी | Vaichariki

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Vaichariki Nai Aalochana by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शई आलोचना श्छ हुई कि उन्होंने मुह पर कपडा चाँध लिया आर असली नाम का 'प्र' लेकर नकली नाम प्रज्ञाचकु रख कर ही साहित्य के भंदान में क़दम रख सके 1” ( 'हुस' , मई, रै६५१ ) उपर्युक्त आरोप का उत्तर दिया डॉ० रागेय राघद ने । लपनी पुस्तक “््रगत्ति्रील साहित्य के मानदष्ड' में उन्होंने लिखा “तो यह पत्ता चला कि डासटर साहब के तक के अनुसार जब कोई नाम यदलशर लिखता हैं वो वह डरता है । तब रामविलात जो जब अगिया बैताल, निरजन, अशोक आदि नामों से लिखते थे तद वे डरते थे । या तो डाकंटर साहब रो अपनी नौकरी का डर रहा होगा या उन्हें बसे साहित्य को स्वीकार करने में ज्ञेंप होगी । जब वे घासलेटो साहित्य को, पार्टी दस्तावेजों को छम्दवद्ध करके रख रहे थे और उससे जनवादों कला का दम घोट रहे थे तब शायद उर्हें अपने डाक्टर जेसे भारी-भरकम साम के बदनाम होने का डर था, बयोकि खडोदोलो को यहू कविताएँ जो आधुनिक प्रचलित दॉती में लिपी गई है पते पर उनका डाक्टर दयोभित है #” इस ध्रकार के संकडों उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनमें आहत क्षोम, दुराग्रह, आवेश और भृणोत्पादक दलीलो वा प्रश्नय छिया गया है। एक ही विचार- धारा और सम सिद्धान्तों के सम्मानित छेखको में इस तरद के विवेक्हीन तकें ओर कटूक्तियाँ पेदा की जा रही हे कि जिससे सवी्ण विचार-दून में ही सिमट कर म्रगतिवादी समीक्षा सबंधा एकागी और विष्वसक होती जा रही है। और भी कितनी ही खामियाँ हे जिन्हें नजरन्दाज नहीं किया जा सकता-- १ रूसी मान्यताओ को लेकर चलने के कारण प्रगतिवाद झपनी भारतीय जीवन-व्यवस्था मे पूर्णेरपेण गृहीत न हो सका, पर इसके समर्थकों ने इसके सामान्य गुणों के लुम्बेलम्दं भाप्य वर हमारे देशकाल की विशिप्ट परिस्थितियों पर इसे भ्रवरस्ती थोपने का प्रयास किया है। २ प्रत्येब कलाकार अपने युग से सदद आगे होता है। उसकी प्रतिभा निर्माणोन्मुख और मघपों को चीरती हुई सहज गतिशील होती है, फिर सगत- लमगत तकों द्वारा भाचीनों वा मूल्य घटाना अयवा तात्तालिक परिस्थितियों की अवहूलना कर उनके कृतित्व वो कसी खास पंसाने से नापजोख करना सरवया बद्ामनोय है । डे शशाइवत” और 'चिरन्तन' से चिडनें दाले नासमझो द्वारा प्राचीन श्रेष्ठ साहित्य तक को आय के उयडे, दिशाहीन साहित्य की तुलना में घटिया सिद्ध करना या उन्हें पृथक करने दाली दिमाजक रेखाएँ सोचना ( वयोकि उसमें उनका अमीप्ट या निश्प्टि मान्यताएँ नही हे ) अपनी प्राथवान साहित्यिक पूजो को बिल्कुल चौपट करना है।




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