एक पीढ़ी का दर्द | Ek Peedhee Ka Darda

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हाता जा रहा था। अब वह इस तरह की चुदलबाजी करने की हिम्मत मी कर होता था। रात में काम निपटाने के बाद वह नियमित रूप से मेरे दरवाजे के पास खड़ा हा जाता और खी खीं-खीं करके हैसना शुरू कर देता। हँसी का यह खनखनाता सैलाब मेरे लिए उसका सिगनल हुआ करता था। यानी उसने सारा काम निपटा दिया हे ओर अब वह पुर्सत में है। इसीलिए मुझे भी ठाब सारी पढ़ाई-टिखाई छोड़कर उससे थोड़ी बात करनी होगी। कभी-कभी वह मेरे साथ देर-रात तक पढ़ने की जिद भी करता। पढ़ने के तिए छदमुत शोक था उस बालक में। घर वी अलमारियों' में जितनी बाल-सुलम पत्रिकाएं थी वे सब अब उसके सोने वाती कोठरी में एकत्र हो चुकी थीं। गणेश अक्सर देर-रात तक उन्हें पढ़ता रहता। मेरे चिरजीव से तो गणेश ओर भी घुल मिल गया था। चिरंजीव का इकतौता बेटा होने के कारण मनोविज्ञान कुछ अठाग ढंग से ही विकसित हुआ था। घर में दूसरा माई-बहन न होने के कारण सोलह वर्ष की अवस्था तक किसी से लड़ने झगड़ने शरारत अथवा चुहताबाजी करने का उसे कोई अवसर नहीं मिता था। और जब गणेश घर मं आया तो उनकी दबी सारी बाल-सुलम चपलता फूट पढ़ी। चिरंजीव साहब तो उन्हें अपने खिटावाड़ वी वस्तु ही समझ बैठे। गणेश के गोरे गाल-मटोल शरीर को गटे पारचे के बबुए की तरह वे जिघर चाहे उसे तोढ़से-मरोढ़ते रहते। कभी उससे कुश्ती लड़ते तो कभी दंड-बेठक का रिहर्सल। गणेश को भी इन सब बातों में आनंद आता था। झक्सर दोना' कमरा बंद करके खूब उठा पटक करते खेतते छेड़छाड़ करते ओर कभी-कभी खूब मन की बातें मी। मरी पत्नी कुछ रिजर्व स्वभाव की है। गणेश से भी घह बहुत नपे-तुटा शब्तं मं ही बातचीत करती 'हे। साथ ही उसे मेरे और चिरंजीव दोनों से यह शिकायत रहती है कि हम लोगों का उसके साथ इतना घुलना-मिलना ठीक नहीं। नौकरों से थाढ़ी ता बनाये रखनी चाहिए। नही तो बाद में ये ही सिर पर चढ़ने टागते || मे उसे अवसर समझाता . बच्चा है। उसका मन भी तो प्यार-दुलार को करता होगा। गणेश इस तरह से प्रसन्न रहता है तो उसमें हर्ज ही क्या है? एक दिन गणणश और मेरे चिरंजीव में इसी प्रकार कोई चुहलबाजी चल रही थी। घीरे-घीरे कर का खिलवाड़ किसी वार्तालाप पर झाकर टिक गया। चिरंजीव गणेश से पूछ रहे तू अपने गांव क्यों नहीं वापस चला जाता? क़ांति/५.




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