नंदिसूत्रम - भाग 10 | Nandisutram - Vol 10

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Nandisutram - Vol 10  by मुनि पुण्य विजय - Muni Punya Vijay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थ्यु न्यायप्रवेशपश्षिकाकी प्रगस्तिका उपर जो उलेख किया है उसके अंतमें ' श्रीश्रीचन्द्रदरिका ही पूर्वावस्थामें पाश्वे- देवगणि नाम था ' ऐसा जो उल्लेख है वह खुद प्रन्थप्रणेताका न होकर तत्काछीन किसी शिष्य-प्रशिष्यादिका लिखा हुआ दा प्रतीत होता है । अस्तु, कुछ भी हो, इस उल्लेखसे इतना तो प्रतीत होता ही है कि-श्रीचन्द्राचार्य ही पार्चदेव गणि है या पार्चदेवगणी ही श्री श्रीचन्द्रसूरि हैं, जिनका उल्लेख धनेश्वराचारयने सापतकप्रकरणकी बृत्तिमें किया है । श्रीश्रीचन्द्रद्वरि का आचायपद श्रीश्रीचन्द्रसूरिका आचायेपद किस संवतमें हुआ * इसका कोई उल्लेख नहीं मीलता है, फिर भी आचायेपदप्राप्तिक बाद- की इनकी जो प्रन्थरचनायें आज उपलब्ध हैं उनमें सबसे पहली रचना निशीथ 'ूर्णिविंशोदेशकव्यारूया है । जिसका रचना- काल वि. सं. ११७४ है | बदद उछेख इसप्रकार है-- सम्यक्‌ तथा&5म्नायाभावादनरोक्त॑ यदुत्सूत्रमू (९) । मतिमान्याद्दा किश्वितू क्षस्तव्यं श्रतघरे: कृपाकलिते: | १॥ श्रीशीलभद्रस्वरीणां गिप्ये' श्रीचन्द्रद्रिमिः । विश्ञकोदेशकब्याखूया दुव्धा स्वपरहेतवे ॥२॥ बेदाश्ररुद्रसडख्ये ११७४ विक्रमसंवत्सरे तु म्रगरी्षें । माघसितद्वादर्यां समर्थितेयं रवी वारे ॥३॥ निशीथपूर्णिविंशोदेजकब्याख्याप्रशस्तिके इस उछेखको और इनके गुरु श्री धनेश्वराचार्यकृत सार्धरातकप्रकरणदृत्तिकी प्रदास्तिके उल्ठेखको देखते हुए, जिसकी रचना ११७१ में हुई है और जिसमें श्रीचन्द्राचाये नाम न होकर इनकी पूर्वा- बस्थाका पार्श्वदेवगणि नाम ही उछिखित है, इतना हैं। नहीं, किन्तु प्रशस्ति के ७ वें पथमें जो विशेषण इनके छिये दिये हैं वे इनके लिये घटमान होनेसे, तथा खास कर पाटन-खेत्रबसी पाडाकी न्यायप्रवेशपश्लिकाकी प्राचीन ताइपन्ीय प्रतिके संतमें उनके किसी विद्वान शिप्य-प्रिष्यादिने- ” सामान्यावस्थाप्रसिंद्पण्डितपा ्ेदेवगण्यमिधान-विशेषावस्थावापतश्रीश्रीचन्द्र- सूरिनामभि” ऐसा जो उछेख दाखिल क्रिया है, इन सब का पूर्वापर अनुसन्धान करनेसे इतना निश्चित रूपसे प्रतीत होता है कि- इनका आचायेपद वि. स. ११७१ से ११७४ के बिचके किसी वर्षेमें हुआ है । ग्रन्थरचना प्रन्थरचना करनेवाले श्रीश्रीचन्द्रा चाय मुख्यतया दो हुए है । एक मलवारगच्ठीय आचाय श्रीहेमचन्द्रसूरिकि शिष्य और दूसरे चन्द्रकुलीन श्री धनेश्वराचायेके शिष्य, जिनका पूर्वावस्थामें पाश्वेदेवगणि नाम था । मलधारी श्रीश्रीचन्द्रसूरिकि रचे हुए छाज पयेतमें चार ग्रन्थ देखनेमें आये हैं-१ सम्रहणी प्रकरण २ क्षेत्रसमासप्रकरण ३ लघुप्रवचनसारोद्धाख़करण और ४ प्राकृत मुनिसुबतस्वामिचरित्र । प्रस्तुत नन्दीसूत्रवत्तिदुर्गपदव्याख्याके प्रणेता चन्द्रकुडीन श्रीश्रीचन्द्राचाय की अनेक कृतियाँ उपरब्ध होती हैं, जिनके नाम, उनके अन्तकी प्रदस्तियोंके साथ यहाँ दिये जाते हैं-- , (१) न्यायपवेशपक्चिका और (२) निश्नीथचूर्णिविशोदेशकव्यारूयाके नाम और प्रशस्तियोंका उल्लेख उपर हो 'चूका हैं । (३) श्राद्धमतिक्रमणसूत्रहत्ति । रचना संबत्‌ १२२२ । प्रदस्ति-- कुबठयसझंविका सप्रदस्तम 'प्रदतिपटुरमछबोध: । प्रस्तुततीर्थाषिपति: श्रीवीरजिनेन्दुरिड जयति ॥१॥ विजयन्ते हतमोहा: श्रीगीतममुख्यगणघरादित्या: । सन्मार्गदीपिका: कृतसुमानसा: जन्तुजाड्यमिद: ॥ रे॥ नित्य प्रात्महोद यत्रिमुवनध्षीरान्धिरत्नो तमं, स्व्॒योतिस्ततिपाज्रकान्तकरिरगैरन्त स्तमोमेदकम्‌ 1 स्वच्छातुष्ठसिताम्बरेकतिलकं बिश्रत्‌ सदा कौमुद्द श्रीमत्‌ चन्द्रकुलें समर्ति विमछे जाड्यक्षितिप्रत्यछूम्‌ ॥३॥ तस्मिन सूरिपरम्पराक्रमसमायाता बृहृत्प्राभवाः सम्यग्क्ञानसुदरशनातिविमछश्रीपघखण्डोपमा: । सचारित्रविभूषिता: शमधना: सद्धमेकल्पांहिपा विस््याता भूवि सूरय: समभवन्‌ श्रीशीछभद्रामिषा: ॥४॥




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