जैन इतिहास के प्रेरक व्यक्तित्व - भाग 1 | Jain Itihas Ke Prerak Vyaktitva - Vol 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
49
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शिलालेख में है जो एक जैन मन्दिर के निर्माण के समय महाराज विक्रमसिंह के
राण्यकाल में लिखा गया था। विद्याचर के बाद इस राज्य का उत्तराधिकारी विजयपाल
हुआ और उसके बाद कीर्तिवर्मा जिसने सं. ११५४ के लगभग लुअच्छ गिरि नाम से
प्रसिद्धि-प्राप्त देवगढ़ का नाम कीर्तिनगर रखा था और यहाँ जैन शिल्प का विकास
कराकर इसे जैन शिल्प का प्रसिद्ध केन्द्र बना दिया था।
कीर्ति वर्मा की एक पीढ़ी के बाद चन्देल वंश का उत्तराधिकारी मदनवर्मन हुआ
जो बड़ा प्रतापी और उत्कृष्ट शासक था। इसके राज्य काल में जैनधर्म की बड़ी प्रगति
. हुई। पपोरा में स्थित मूर्ति-लेखों से इसकी जैनधर्म प्रियता का आभास मिलता है।
खजुराहो-स्थित मूर्तियों में भी इस राजा का उल्लेख है जो श्रेष्ठी पणिधर ने निर्मित
कराई थीं।
कोक्कल के शिलालेख में भी इन (मदनवर्मदेवस्य प्रवर््धमान विजयराण्य) का
उल्लेख मिलता है । महोबा से प्राप्त मूर्तियों में भी महाराज मदनवर्मदेव का नामोल्लेख
मिलता है। मदनवर्मदेव के बाद उसका पुत्र यशोवर्म द्वितीय हुआ जो अपने पिता के
सामने ही दिवंगत हो गया था। अत: मदनवर्मदेव के पश्चात् चन्देल वंश का
उत्तराधिकारी परमर्दिदेव हुआ। मदनवर्मदेव के समय में ही अहार, जिसे मदनेस
सागरपुर कहा जाता था, में तीर्थंकर शान्तिनाथ की प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्रतिमा पाड़ासाह
के वंशजों ने प्रतिष्ठित कराई थी। मदनवर्मदेव ने अपना राज्य मालवा तक फैला दिया
था। इसलिए परमर्दिदेव ' द्शार्णाधिपति' की उपाधि से सुशोभित हैं।
महोवा से प्राप्त सं. १२२४ की जैनमूर्ति में परमर्दिदेव को ' प्रवर्धमान कल्याण
विजय राज्धे' से सम्बोधित किया गया है। अहार से प्राप्त एक जैनमूर्ति सं. १२३७ में
भी राजा परमर्दिदेव का उल्लेख है। परमर्दिदेव के बाद चंदेलवंश का उत्तराधिकारी
तैलोक्यवर्मन हुआ जिसने छत्तीस वर्ष राज्य किया था। पर जैनधर्म संबंधी किसी कार्य
का उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता है । त्रैलोक्यवर्मन के बाद चंदेल बंश का अन्तिम
राजा वीरवर्मदेव हुआ जिसका उल्लेख अजयगढ़ (पन्ना) से प्राप्त ती थैकर शान्तिनाथ
के मन्दिर में है, जिसकी नींव आचार्य कुमुद्रचन्द्र ने सं. १३३१ में रखी थी। अजयगढ़
में श्रेष्ठी सोढ़ल द्वारा प्रतिष्ठित सं. १३३५ में ती थैकर शान्तिनाथ की प्रतिमा के पादपीठ
में भी महाराज वीरवर्मदेव का नामोल्लेख है। इस तरह चंदेल वंश के लगभग चार सौ
वर्षों के शासन में दस राजा हुए जिनके प्रश्रय और संरक्षण से जैनधर्म को बुन्देलखण्ड
में खूब फलने-फूलने का अवसर प्राप्त था।
अन्त में चन्देलों के धन-कुबेर पाहिल्ल श्रेष्ठी का पुण्य स्मरण करते हुए उनकी
उदार एवं विनम्र सदवृत्ति का शुणानुवाद करते हैं और शत-शत नमन करते हैं जिसे
हसार वर्ष बाद भी नहीं भूल सके हैं , भावी-पीढ़ी भी उनका आदर करती रहेगी।
दे
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