द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ | Dwivedi Abhinanadan Granth

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Dwivedi Abhinanadan Granth  by रामनारायण मिश्र - Ramnarayan Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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् द्विवेदी-अझसिनंदन रथ केवक लाकरुखि को शाक्षित करना ही अभोषट नहीं था, बक्कि पारस्परिक विचार-दिविमय से नई सूक्त तथा सादिर्य-विषयक स्वच्छ, सूक्ष्म दृष्टि के भी उदय हेसे की शुभाशंसा थी । परंतु भारतेदु के अस्त देते ही ये कथि-संमेलन अपना वह पूर्व लक्ष्य भूल गए; शोर बाद में तो उनका बहुत ही विद्त रूप हो गया। संमेलनों की साहित्य-समीश्षा केवल कवित्त सुनाने में रह गई । रात रास मर यही देखा जाता था कि कौन किस तजे से, किस रस के, कितने कविस सुना सकता है। श्रागे चलकर इसने जखसे का रूप धारण किया छोर स्कूलों -कालेजों सक में इसका सिक्का जमने लगा । पुरस्कार बेंटने लगे, इनाम मिलने लगे। गलेबाजी दिखाने का शौक बढ़ा । कविता-सेमेलन नहीं रहे । संगीत-संमेलन चार ताली-सैमेलन बन गए। इन्हें परिहास-सैमेजन मी खमम सकते हैं । लक्ष्य अष्च हो गया । इस समय तक मेकाले साहब की डाली हुई भंगरेजी शिक्षा की नींव हमारे प्रांतों में भी पढ़ चुकी थी । लाग झंगरेजी की समीक्षा-शेली से भी परिचित है रहे थे। संस्ट्त, प्राइूत और देश-भाषाओं के अम्यासी कतिपय विदेशी विद्वान शोर उनके हिंदुस्तानी शिष्य क्ेत्र में थाने लगे थे । सभा-सोसाइटियाँ यद्यपि पहले भी थीं, परंतु एक-दम मघीन उत्साह चार उत्तरदायित्व लेकर झंगरजी-शिक्षा-प्राप्त सीन नवयुव्कों ने काशी-नागरी-प्रथारियी सभा की स्थापना की जिसे समय ने देश की एक प्रमुख साहित्यिक संस्था सिद्ध कर दिया है । यद्यपि प्त्र-पश्रिकाएं भी हिंदी में निकका रही थीं, परन्तु नवीन रुचि के अनुसार नवीन आवश्यकताओं की पूरति के लिए सभा की झ्ार से 'सरस्वती” शाम की मासिक पत्रिका का श्रीगणेश हुआ । ऐसे ही शवसर पर डाक्टर प्रियर्सन महोदय ने, जे भारतीय भाषाओं के प्रकॉड पंडित माने गए हैं, हिंदी-साहित्य के कतिपय कवियों की जीवनी और प्रशंसात्मक समीझ्ा धेंगरेजी में लिखी ।. उसमें तुलसीदास को उन्हेंने एशिया के उत्कृष्ट कवियों में स्थान दिया जिससे, हिंदी के भंगरेजी-दा विद्वानों में पक भ्रच्छी हलचल-सी मची शझौर एक नवीन उत्साह-सा देख पढ़ा ।. 'नवरक्ष' नामक हि दी-कविंबों का ससीक्षा-प्रथ इसी उत्साइ-काल में प्रकट हुआ ।. उसमें केवक्ष डाक्टर मियसेन के बिच्वारों की ही पृष्टि नहीं की गई बल्कि-बहुस सी. नर्वदन उद्भायनाएं भी दिखाई पढ़ीं । परंतु इसके कुछ पहले ही पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी संस्कृत, मराठी, शुजराती, चेंगला, तू श्रोर झंगरेजी की श्रपनी बहुशता को साथ नवादिता 'सररबर्ता” में बुला लिए गए थे! 'मवरत्न' की परीक्षा करते हुए इन्हेंने साहित्य झौर कविता-संबंधी अपने जा विचार सरस्वती में प्रकट किए, उनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। अतः यहां उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है । द्विवेदी जी ने सैस्कृत अथवा अैगरेजी श्रादि के साहित्यिक सिद्धांतों का अनुसरण करके अपने विसार नहीं प्रकट किए, यह कहना ही मानों साहित्य-सरणी में उनकी गति जान लेना है। वे हिंदी का साहितय-शास्त लिखने नहीं बैठे थे । स्टील, एडीसन, जानसन, सैम्ब, हेज़लिट या हमार देश के रवींव्रनाथ कोई सो नहीं बेटे । यह भी नहीं कह सकते कि ये लोग शास्त्रीय समीक्षा की प्राचीन प्रणाली से परिच्चित नहीं थे । इन्होंने उसका अभ्यास नहीं किया। यहाँ इसारा अभिमषाय बह भी नहीं कि हम दिधेदी जी की समीक्षा से स्टील, जानसभ, रवींद्र श्रादि की समीक्षा की तुकना कर । परंतु इतनी समता तो सबमें है कि अपने समय की साहित्य-समीक्षा पर अपनी प्रकृति की मुद्दा ये सभी अंकित कर गए हैं । भावना की वह गहन तन्मयता, जो रवींद्रनाथ को किला के विगूढ़ रहस्यमय अंतरपट का दर्शन करा देती हैं, द्विवेदी जी में नहीं मिलती; न इन्हें कल्पना की वह श्राकाशगामिनी गति डी मिली है जो सदा रवि बाबू के साथ रहती है। परंतु हन प्रदेशों के बिस्संपन्न, कमेंद ब्राह्मण की भांति द्विवेदी जी का शुष्क, सास्विक झाचार साहित्य पर मी अपनी छाप छेडड़ गया. है जिसमें न कल्पना की शय्च बदुभावना है, न साहित्य की सूक्ष्म दृष्टि; कंदल एक शुद्ध प्रेरणा है जा भाषा का भी माजन करती है धार समय पर सरक्ष उदास भावों का भी सत्कार करती है।. यहीं हिवेदी जी की देन है। शुष्कता में ब्यंग्थ है, सात्त्विकता में बिनोत है । द्विवेदी जी में थे दोनों ही हैं। स्वभाव की रुखाई, कपास की भाँसि नीरस होती हुई भी, गुणमय फल देती है । ट्िपेदी जी ने हिंदी-साहित्य के 'ंत्र में कपास की ही खेती की 'नेरस बिशद गृणशमय फल जासू ।' फलतः लोगों में साहित्य विषय की जानकारी भ्रण्छी बढ़ी और द्िवेदी जी के थिसारों का झनकरण भी दाने लगा ।. प्राचीन हिंदी से मी झचिक संस्कृत की थोर हिवेदी जी की रुखि थी । जनता में भी 'सरस्वती' हारा




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