नागरी प्रचारिणी पत्रिका - वर्ष 46 | Nagaripracharini Patrika - Varsha 46

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वाल्मीकि अर उनका काव्य रामायण * धर तथा अथवां निधिरे , 'शत-यातु”र अर जिह्काष (८ जादू के खजाने ) शब्द प्रयुक्त हुए हैं । ऋग्वेद में'वशिष्ठ रोते हैं कि मेरे विराधी मुभ्के व्यथे यातु-घान कहते हैं । ये सब बातें इन कुलों की अत्यंत प्राचीनता की द्योतक हैं । 5 ४, महाभारत में भी लिखा है कि मूल गोत्र चार थे--झगु, झंगिरा, कश्यप झोर वशिष्ठ, फिर कमेशा दूसर दूसरे गोत्र हुए । इन चारों नामों में भी कश्यप को छोड़कर शेष तीन वही हैं जा उक्त पितर- वर्ग की सूची में हैं । इन्हीं चारों आद्य ऋषियों का विकास जह्मा कं मानस पुत्रों के रूप में होता ने, जिनकी संख्या चार, सात, आठ, नी, दस झार कहां कहीं बारह तक मिलती है* । इनमें भी सरूगु सबसे ज्येप्ठ झोर श्रेष्ठ दैं; वे ्ह्मा के हृदय से हैत्पन्न हैं? । इस सबका निष्कष यही है कि ऋषियों के प्राचीनतम बंशों में भ्रूगुबेश का एक विशिष्ट स्थान था । ऊपर हमने देखा है कि मूल भ्रणु प्रचेता श्रधात्‌ वरुण से उत्पन्न कहें जाते थे। यह ठीक भी है; क्योंकि यह वंश वरुण संप्रदाय का सबसे बड़ा स्तंभ था 1. ब्रह्मा के मानस पुत्र बन जाने पर भी उसका पुराना नाम प्राचेतस सार वारुणि उसयेां का व्यों बना रहा । २--बृदभारदीय ८1६३; जनल व रघिल एशिय टिक सपसाइटी, १६१६, प्र० डेदर-६र३। र--ऋ० वे० ७१८२१; निसक्त द | ३०; यरशिष्रस्पृति ३०1११; मर्डॉनिल और कीथ का वैदिक इ ड कस २1४९; २1३४२; पार्जिटर प्र० श०९ | ३---महाभारत ( कलकत्ता, श्८३६ ई० ) १२८७३, रे० ३५ | ४ननऋष वे० ७1१०४।१५-१६ | भ.--मद्ाभारत ( कलकत्ता १८३६ इज ? २२1२६८।१०८७४७७-प८ ६--भगवदूदत्त, भारतवष का इतिहास, प्र० ३२; बायु० ( पूर्वाघ ) ९१९२-६४; न्ह्मांड० पूव भाग, र६, ३२ । ७--वायु० ( पूर्वाघ ) £1£ २-६५; अ्रह्मांड० पूवमाग, र।९, २९; “जहा शो भिक्चा निःसतेा भगवान खयु: ।”--मारत १६-४० ।




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