ज़िंदगी मुसकरायी | Jindagi Musakarai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इन पंक्तियों ने मुझे बिजली के सैकडो घबकों से झमझना दिया और उस दिन मैंने अपनी जाने क्रितनी कविताएँ भर लेख फाड़ डालें । जोश मुझमें इतना कि हरेक को फाडते समय मैंने कहा ४ “तुम कुछ नही हो, तुम घास हो, दुममें कमाल नही है, मुझे तुम्हारी जरूरत नही, मैं सिर्फ कमारू की ही चोजें चाहता हूँ ।”” इन रचनाओं को फाडकर मैंने नये छेखक के जोवन का जो महामन्त्र सीखा बह यह है « “रचनाओ को छपाकर नदी, फ़ाडकर ही नया लेखक भागे बढ़ता है ।” भव मुझे कमाल करना था; पर कमाल बेचारे का कोई अता-पता भुझे माछूम न था । यह भी मेरा एक लडकपन था, पर इसमें जो के साथ होश सी थी कि छब मुझे छपाने के छिए नही, लिखने के छिए लिखना था । एक दिन खेतों पर गया, तो अजब हरियाली थी । उससे प्रेरणा मिलो गौर हुदयेश जी की दीली में मैंने एक गदा-काव्य लिखा, कई पेज का । थाज सोचता हूं उसमें गय-काव्य और स्कैच का समन्वय था । इसे लिखकर रख दिया और तीन-चार दिन वाद फिर पढ़ा और इस तरह कि मैं एक सम्पादक हूं और मेरा महत्त्व इस बात में है कि इसके लेखक को मैं उसकी श्रुटियाँ घता सकूँ। यो एक पत्र के कल्पित सम्पादकत्व से मेरी सम्पादन कछा का शभारम्भ हुआ । गान सोचता हूँ, तो हँस पढ़ता हूँ कि मैं उस दिन सम्पा- दक के पोज में ही न था, यथार्थ में सम्पादक था । मुझे अनुभव हो रहा था किमैंहूं सम्पादक श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर” और मेरे सामने ट्वी बैठा है - यह एक नया लेखक कन्हयालाल प्रभाकर; है, जिसे अमी कुछ भी नहीं आता ! मैं बद॒गद्य-काव्य पढ़ता जाता और उसकी कमियाँ मुझे सूझती जाती । मैं शत्यन्त गौरव के भाव से उन्हें वताता जाता, नये सुन्ाव भी देता और कभी-कभी बेचारे लेखक पर बरस भी पढ़ता : “यह लेखन हैं पठभूमि हि




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