अन्नदा | Annada

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Annada by अमरनाथ शुक्ल - Amarnath Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यह सुनकर अस्नदा का मन उटका 1--यह पेत-वारी घूमने का दकत है? चेन से तो मैं आयी ही हूं। वहाँ तो वह गया हो नहीं । हो सकता है किसी के यहाँ बैठा गप लगा रहा हो, यह सोचकर उसने मंदा से कहा-- यही ने आवाज तो दे, भइया ! भइया 1! करके । कही होगा तो बोलेगा हो।” मदा की मधुर आवाज कोयल-मी शूंजी, पर गोपाल का उत्तर नहीं काया 1 झननदा गोपाल के स्वभाव को जानती थी, उसके मन को जानती थी । बेटे को माँ से बढकर कौन समझ सकता है। वह चुपचाप उठी । ओमारे से दीया लिया । देखा, ओमारे में नहीं, दरवाजे में नहीं, मडया में सही । गाँव में किसी के यहाँ बैठा होता तो मदा की आवाय सुन कर बोलना तो सही । आकुल-सी, च्याकुल मी, वह दीया लिए दालान में गई / देखा, एक कोने मे खाट पर बिना कुछ ओढे-विछाये गोपाल चुपचाप पडा था। भाने में दीया रखकर अरनदा उसके पास गई ।--'गोपाल गोपाल ! पुकार करें अन्नदा ने उसे झकझोरा। गोपाल ऊँ ऊँ' करके करवट बदलकर रह गया । अन्नदा ने फिर झकझोरा--'गोपाल ! उठ, यह सोने की कौन-सी देला है ! न खाया, न पिया, आकर चुपवाप इस कोने मे पड़ा है। कभी और भी यहाँ सोया था, जो आज यह नई जगह सोने बे लिए चुनी है । उठ, जल्दी उठ ।” गोपाल नहीं उठा । वह करवट बदलता ही रहा। पर जब देखा माँ नही मान रही है तो झिडक कर बोला--''मानती क्यो नहीं ? मैने कह दिया कि मुझे भूख नहीं है। मैं न उठूंगा, न याऊँगा । तू जा यहाँ से, मुन्ने तण मत बार (” *जाऊँ कहाँ * बायेगा क्यो नहीं * क्या हुआ है जो आज विना खायें ही सोयेगा भीर वह भी यहाँ इस कोने में 1” अन्नदा के स्वर में आग्रह था। गोपाल झल्लाया--“हाँ, यही सोऊँगा, मेरी मरजी। खामे को मन सी, नही, दै, ५ पुरे च्युभ्ययद पत्श, रद, दे १ जता, पर: किया, यही, संत” भननदा : 1




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