सतीअंजनासुन्दरी | Satianjanasundari
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
66
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about मुनिराज पद्मविजय जी - Muniraj Padmvijay Ji
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सदों अनज्नवाउुन्द्री ।.. ६
काने, विकाफतवत लव नावविनाललाद, दर प्वनकिित
पुरमें गये । यहाँ उन्होंने अपनों माताकों श्रद्धापूवेक प्रणाम कर
सारा दाल कद सुनाया भर उनसे भी उसी तरद नघ्रता पूर्वक
रण-यायाके लिये सादा मागी । घीर जननीने चात्सव्य जनित
व्याकुलताको छिपा कर शान्ति पूर्वक उन्दें शुभाशीश दे,' युद्धके
लिये विदा किया ।
द्रिय पाठक ! पुत्रका यह कर्तव्य ोना चाहिये, कि व
अपने पिताफा समर्त कार्य-भार अपने शिर पर उठा ले । इत-
नाद्दी नदी, उसे अपने माता पिताके प्रति भक्ति, श्रद्धा और
चिनय भी दिखाते रदना चाहिये । इससे माता पिताफो आनन्द
होता दै भीर पुत्र अपने पितुद्धणसे मुक्त होता है। पढ़लिख
यकर यड़े होने पर माता पिंताका जी जलाना -चहुतदी घुरा और
निन्दुनीय हैं । इसी तरद माता पिताकों भी चाहिये, कि यदि
पुत्र नोतिवान भीर चिवेकी दो, तो उसके लिये अपनेकों घन्य
सम भर सर्द व ऐसा आायरण करें, जिससे उसको उत्तरोतर
उन्नति दोती रहें । माता पिता गीर गुरजनोंकों अपने पुत्र और:
शिष्य द्वारा पराजित दोनेमें दी अपना गीरव समन्दना चाहिये,
क्यों कि भपना पुत्र किंवा शिष्य अपनेसे अधिक विद्वान गीर
गुणवान हों यदद परम वाइछनोय है ।
जिस समय प्रनेजय अपनी माताके पास गये, उस समय
अशना सुन्द्री मी वहाँ उपस्थित थी । उसने पतिदेवकों देखते
दी नन्नतायूर्वक उनके चरणोंमें प्रणाम किया, किन्तु पवनंजय
उसकी उपेक्षा कर चहाँले चल पढ़े । भज्जना खुश्द्रीके. प्रति
बन्द
न
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