सतीअंजनासुन्दरी | Satianjanasundari

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Satianjanasundari by मुनिराज पद्मविजय जी - Muniraj Padmvijay Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सदों अनज्नवाउुन्द्री ।.. ६ काने, विकाफतवत लव नावविनाललाद, दर प्वनकिित पुरमें गये । यहाँ उन्होंने अपनों माताकों श्रद्धापूवेक प्रणाम कर सारा दाल कद सुनाया भर उनसे भी उसी तरद नघ्रता पूर्वक रण-यायाके लिये सादा मागी । घीर जननीने चात्सव्य जनित व्याकुलताको छिपा कर शान्ति पूर्वक उन्दें शुभाशीश दे,' युद्धके लिये विदा किया । द्रिय पाठक ! पुत्रका यह कर्तव्य ोना चाहिये, कि व अपने पिताफा समर्त कार्य-भार अपने शिर पर उठा ले । इत- नाद्दी नदी, उसे अपने माता पिताके प्रति भक्ति, श्रद्धा और चिनय भी दिखाते रदना चाहिये । इससे माता पिताफो आनन्द होता दै भीर पुत्र अपने पितुद्धणसे मुक्त होता है। पढ़लिख यकर यड़े होने पर माता पिंताका जी जलाना -चहुतदी घुरा और निन्दुनीय हैं । इसी तरद माता पिताकों भी चाहिये, कि यदि पुत्र नोतिवान भीर चिवेकी दो, तो उसके लिये अपनेकों घन्य सम भर सर्द व ऐसा आायरण करें, जिससे उसको उत्तरोतर उन्नति दोती रहें । माता पिता गीर गुरजनोंकों अपने पुत्र और: शिष्य द्वारा पराजित दोनेमें दी अपना गीरव समन्दना चाहिये, क्यों कि भपना पुत्र किंवा शिष्य अपनेसे अधिक विद्वान गीर गुणवान हों यदद परम वाइछनोय है । जिस समय प्रनेजय अपनी माताके पास गये, उस समय अशना सुन्द्री मी वहाँ उपस्थित थी । उसने पतिदेवकों देखते दी नन्नतायूर्वक उनके चरणोंमें प्रणाम किया, किन्तु पवनंजय उसकी उपेक्षा कर चहाँले चल पढ़े । भज्जना खुश्द्रीके. प्रति बन्द न




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