संस्कृत - छन्दोविधान का सैद्धान्तिक एवं प्रयोगिक विश्लेषण | Sanskrit Chhando Vidhan Ka Saiddhantik Awam Prayogik Vishleshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रचनायें मानव मात्र को सहज ही चतुर्वर्गफल की प्राप्ति कराती हैं । छन्दोमुक्त कविता से भी आनन्द की प्राप्ति होती है, लेकिन इस स्थिति में कविता विदग्धजनों का विषय बन जाती है तथा जनसाधारण से दूर हो जाती है। इसके अतिरिक्त कविता के प्राण तत्त्व लयात्मकता, सुश्राव्यता तथा सम्प्रेषणीयता छन्द के द्वारा ही सम्भव हैं | छन्दों की लयात्मकता आदि उनकी निजी विशेषता है, जो छन्द से अनभिज्ञ व्यक्तियों के कानों पर ऐसा प्रभाव डालती है कि केवल उसका समुचित ढंग से कविता पाठ ही प्रभाव उत्पन्न करने के लिये पर्याप्त होता है। सुश्राव्यता छन्दों का आवश्यक गुण है। रचना की सफलता के लिये छन्दों के नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। यदि छन्द के सिद्धान्तों या नियमों को ध्यान में रखकर छन्द का पाठ न किया गया, तो छन्दोभड्ग दोष प्रसक्त होता है तथा साथ ही सुश्राव्य के स्थान पर दुःश्राव्य हो जाता है। छांदसिक नियमों की परवाह किये बिना छन्द का पाठ करने पर ऐसा लगता है जैसे बैल चिल्ला रहा हो या कोई गाल पर चाँटा मार रहा हो। अतएव छन्द का पाठ करने के लिये उसके सिद्धान्तों का ज्ञान होना आवश्यक है। इसीलिये तो छन्द की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए राधादामोदर का मन्तव्य है कि जो मनुष्य सभा में छन्दों के लक्षणों से रहित काव्य पाठ करते हैं, वे अपने हाथ से ही अपना सिर काटते हुए भी नहीं जान पाते हैं कि वे अपना सिर काट रहें हैं- 'छन्दो लक्षणहीनं सभा सुकाव्यं पठन्ति ये मनुजाः | कुर्वन्तो5पि स्वेन स्वशिरच्छेद॑ न ते विदु: | 1” छन्द के ज्ञान के बिना काव्य-पाठ करने वाले विद्वानों की सभा में उपहास का पात्र होते हैं, अतः छन्दःबोध अत्यन्त आवश्यक है। ' छन्द.कौस्तुभ, प्रभा-१, पद्य-४




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