मूल्य और उपलब्धि | Moolya Aur Uplabdhi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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_ : बसी लि ८६ आदि रूढ़ि रुप में मान ली गयी । जो बिद्याएं किसी प्रकार भी अथकरी न हो सकी अथवा अथेपाजन से जिनका दूर का सन्वन्ध था, वे विद्या या न च्क शुन्त्र रुप में ही मान्य रहीं । अनेक विषय ऐसे हैं जिन्हें कछाओं में भी गिना न के दर बे के गया है पर जो सामान्य रूप में शास्त्र ही माने जात हैं जैस दशन, योग, शास्त्र आदि । इसका रहस्य यहीं है कि एक ही विषय केवल ज्ञावाज॑न /« भा कि लक्ष्य होने पर पिचा या साख््र साना जाता था आर अ्थोपाजन या विलासिता किन्तु कुछ विद्याएं ऐसी भी थीं जा विशेष्र कोशल से युक्त होने पर अपने चमत्कार और सोन्दय के कारण ही कठा रूप में मान्य थीं और जीविकोपाजन का साधन बनने पर कला के सच्चे उपासकों द्वारा वे आदत नहीं होती थीं इस कथन क प्रमाण में मृच्छकटिक साटक के पात्र चारुदतत के सं वाहक देह ददाने वाला) की उक्ति उपस्थित की जा सकती है । एक वार चारुदत्त दी य्र मिका इसनतसेना ने संवाहक के काय से प्रसन्न होकर कहा कि तुमने बड़ी अच्छा कला सीखी हैं । इसके उत्तर में संवाहक ने कहा, “नहीं आयें कला समझ कर उसे साखा तो अवश्य था पर अब तो बह आजीविका बन गयः है ।” इसका व्याख्या करत हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है “इस का अथं यह हुआ कि जाविका-उपाजन के काम में लगाई हुई विद्या नगद के स्वण सिंहासन से विच्युत मान ली जातीं थी यही कारण . था कि बनहान नागारंकणण सवकला पारंगत दोले पर भी नागरिक के ऊँचे आसन से उतर कर 1बिट हान के लिए वाध्य हात थे ।”* सस्मवतः काव्य तथा अन्य लिन कढाएं जब जीविकॉपार्जन का साधन बन गयीं अर्थात्‌ राजा-रईस उन्हें अपनी विलासिता और आभिजात्य का साधन मान कर उन्हें सीखने और कलाकार्स का. आश्रय देन लग तभी वे कामसूत्र आदि ग्रन्थों की कला सूचियों में सम्मिलित हुइ । काव्य भी इन कढा-सूचियों में परिगणित हुआ हैं । इससे यह स्पष्ट है कि जव-जब काव्य राजा-सामन्तों को ललाशकसटलशटटटशए सट आस नल १--डा० हजारीप्रसाद ट्वेदी--प्राचीन भारत का कलात्मक विनोद--- पष्ठ १८ बह




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