सन्तों का भक्तियोग | Santon Ka Bhaktiyog

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Santon Ka Bhaktiyog by राजदेव सिंह - Rajdev Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सन्तों की बक्ति : ऐतिहासिक सन्दभ १२--सन्तों की भक्ति को लेकर विद्वानों में काफी विवाद रहा है। * उनकी दृष्टि में निणुण गौर रूपातीत त्रह्म तो ज्ञान का विषय है। मक्ति के लिए; ब्रह्म का सगुण होना अनिवार्य है । ध्यान से देखा जाय तो स्पष्ठ हो जाता है कि. उपनिषदों में लिस नियगुण ब्रह्म को शान का विषय बताया गया है और सन्त लिस निगुण राम को भजने का उपदेश करते हैं वह नियगुण होने पर मी भक्ति के लिए पूरी तरह श्राह्म है । नारद पाचरात्र में रुपष्ट रूप से कहां गया है कि भगवान के सर्वोपाधि विनिर्मुक्त रूप को तत्पर होकर ( अनन्य भाव से ) समस्त इन्द्रियों और मन के द्वारा सेवन करना ही भक्ति है ।”* इसी प्रकार शाण्डिठीय भक्ति सूत्र १, र में बेदान्त दर्शन के प्रथम सूत्र “अथातों त्रह्म जिशासा” को ईदयर के प्रति परानुरक्ति कद कर समझाया गया है--“अथातों त्रह्म जिज्ञासा” । 'सापएनुरक्ति रीश्वरे ।*--अर्थात्‌ ब्रह्म-जिशाता और कुछ नहीं वह इंइचर विपयक परानुसक्ति दी है। स्पष्ट दे कि भक्तियूत्नों अतः भक्तिशासन में श--दिन्दी सादित्य के इतिहार्सों तथा स्तों एव भक्ति पर लिखे गए; प्र्थो में इस विवाद को देखा ना सकता है | र२--सर्वोपाधि विनिंमुक्त तत्परत्वेन निर्मम, । दघीफेण दृपीकेदा सेवन मक्तिसुच्यते ॥--मभक्ति रसाम्रत सिन्घु, १,१९२,




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