प्रमाण और उसके भेदों के प्रमाण्य की परीक्षा | Praman Aur Usake Bhedo Ke Pramanya Ki Pariksha
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
32 MB
कुल पष्ठ :
257
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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करने मे दार्शनिको में कोई विप्रतिपत्ति दृष्टिगोचर नहीं होती। लेकिन करण शब्द की व्याख्या को
लेकर दार्शनिको मे मतभेद दृष्टिगोचर होता है।
करण शब्द की व्याख्या करते हुए महर्षि पाणिनि ने कहा है कि “साधकतम् करणम्”'*
अर्थात् क्रिया की सिद्धि मे जो सबसे प्रकृष्ट उपकारक अथवा सर्वाधिक सहायक कारण होता है,
उसे करण कहा जाता है। साधकतम् उसे कहते है जो क्रिया का प्रकृष्टोपकारक अर्थात सबसे
अधिक समीपवर्ती हो, जिसका व्यापार होते ही क्रिया के फल की निष्पत्ति हो जाये तथा बीच मे
किसी वस्तु का व्यवधान न हो।
करण शब्द की व्याख्या को लेकर प्राचीन नैयायिकों व नव्य नैयायिकों में मतभेद है।
प्राचीन नैयायिकों के अनुसार करण का अर्थ है ऐसा कारण (साधन) जो व्यापारवत् और असाध
रण हो-“व्यापारवद असाधारणम् कारण करणम्”। यहाँ असाधारण कारण से आशय ऐसे
कारण से है जिसकी अनुपस्थिति में कार्य की उत्पत्ति न हो सके। यहाँ पर असाधारण शब्द
करण' को अन्य कारणों से अलग करता है, जबकि “व्यापार” शब्द इस प्रकार के विषयों को
छोड़ देता है, जो कार्य करने के समय व्यापारवत् नही है, किन्तु ऐसा करने की (व्यापार की)
क्षमता रखते है। किन्तु नव्य नैयायिक करण की इस व्याख्या को अस्वीकार करते हैं । उनके
अनुसार करण ऐसा कारण (साधन) है जिसके होने से तुरन्त कार्य उत्पन्न होता है-
“फलयोग्यावच्छिन्न॑ कारण तज्जनकताप्रयोजक जनकताकत्वं व्यापारत्वमु ।”'* इस प्रकार
प्राचीन नैयायिक जहाँ करण को द्रव्यस्वरूप मानते है, वहाँ नव्य नैयायिकों के अनुसार करण स्वयं
व्यापार का स्वरूप है। जैसे, कुल्हाड़ी से लकड़ी काटने की स्थिति में प्राचीन नैयायिकों के अनुसार
स्वयं कुल्हाडी करण है, जबकि नव्य नैयायिकों के अनुसार कुल्हाडी का प्रहार (कुल्हाडी का
व्यापार) करण है।
वस्तुतः करण की व्याख्या के सम्बन्ध में प्राचीन और नव्य नैयायिकों के मतों में अंतर होते
हुए भी कोई आत्यन्तिक विरोध नहीं है, क्योंकि पाणिनि के सूत्र “साधकतमं करणम्” से दोनों
ही लक्षण निष्पन्न हो सकते है। दोनों लक्षणों मे साधकतम् कारण से ही क्रिया की निष्पत्ति होती
है ।*? इस प्रकार करण के दोनो लक्षणों द्वारा प्रमाण की निष्पति होती है।
प्रमाण का लक्षण
'प्रमाकरणं प्रमाणम्, इस रूप में प्रमाण को परिभाषित करते हुए भी अपनी-अपनी
दार्शनिक मान्याताओं के आधार पर विभिन्न दर्शनों में प्रमाण के विशिष्ट लक्षण निर्धारित किये गये
हैं, जिनका विवेचन अधोवत् है-
न्याय दर्शन में यथार्थ अनुभव को प्रमा- तथा उसे साधन को प्रमाण माना गया हैं।
वात्स्यायन के अनुसार “उपलब्धि”' अर्थात ज्ञान” अथवा प्रमा के साघन को प्रमाण कहते
है ।” उनके अनुसार विषय के अनुरूप ज्ञान उत्पन्न करने वाला साधन प्रमाण है। वाचस्पति मिश्र
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