तुलसी प्रज्ञा | Tulsi Prajna (1989)ac 6829
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
211
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आचारांग में प्रेक्षाध्यान के सत्र
कु साध्वोश्री स्वस्तिका
साधना व्यक्ति की आध्यात्मिक उपलब्धि का. विशुद्ध उपक्रम है जिसमें साघक
अनासक्त भाव से संसार की. यधाथंता पर अनुचिन्तन करता है और निर्वाण-प्राप्ति
को लक्ष्य बनाता है । निर्वाण-प्राप्ति का क्रम प्रेक्षा से प्रारम्भ होता है । प्रेक्षा की यात्रा
देखने से शुरू होती है । इसका ध्येय सूत्र है. अपने द्वारा अपना दर्शन ।. दूसरे शब्दों
में आत्मा द्वारा मात्मा की होने वाली विविध पर्यायों का दर्शन । चेतना का लक्षण है
ज्ञान और दर्शन । जानना और देखना । आयारांग में निर्दिप्ट साधना पद्धति का मूल
भी जानना देखना है । इसीलिए स्थान-स्थान पर जाणह, पासह, दंसो, परमद सी,
संपेहा, पेहमाणे, पड़िलेहा' आदि शब्दों का. उपयोग किया गया है। राग व देष की
चेतना से परे हटकर देखना ही यहां काम्य है । आधारांग कहता है -- “से हु दिट्ठपहे
मु्णी जस्स णत्थि समाइयं'' अर्थात् प्रेक्षा की साधना देखने की साधना है । विषयों को
सम्यक् जानने व देखने वाला ही आत्मवित्, ज्ञानवित्, बेदवित्, ब्रह्मवितू होता है ।
दिषयों की भआासक्ति आत्मज्ञान में बाधक है । प्रेक्षा पद्धति इसके लिए कई पड़ावों को
यात्रा स्वीकार करती है । आयारो में इन बिंदुओं का कहां तक समावेश है, यही प्रस्तुत
प्रसंग में विवेच्य है ।
१. कायोह्सग
यह साधना पद्धति का आधार स्तम्भ है क्योकि काय की स्थिरता सध बिना
मन व वाणी की साधना असंभव है । भगवान महावीर ने काय-स्थिरता की महत्ता
प्रतिपादित करते हुए कहा है--क्वाय गत्तियाएं जीबे संवरणं जणयई । . कायोत्सर्ग
अध्यात्म विकास की प्रथम भूमिका है । आचारांग कहता है--कायोत्सग करने वाला
ही धर्म के ममं को जानता है तथा ऋजु होता है मरा मुयच्चा घम्म विउत्ति अंजु
यहा मुपच्चा का अर्थ शवासन या. कायोत्सर्ग से है। कायोत्सर्ग में साधक अन्यथा
व्यवहार करता है --'अण्णहाणं पासए परिहरेज्जा ।” कायोत्सगं की साधना से
व्यक्ति शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक समस्याओं से मुक्त होता हुआ जीवन को
साथंक बना लेता है ।
२. अन्तर्यात्रा
ऊर्जा का ऊर्ध्बारोहूण व. अन्तर्मुबता के विकास के लिए अन्तर्यात्रा सशक्त
गालम्बन बनती है । इसमें चित्त को शक्ति केंद्र से शान केंद्र तक ले जाते हैं। इसे
खच्ड रे दे, अंक १ ७
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