संस्कृति काव्यों में चमत्कारिक शैली उदभव विकास एवं प्रवृत्तियाँ | Sanskrit Mahakavyo Men Chamatkarik Shaily Ka Udbhaw Vikas Evm Pravrittiyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किये गये काव्य लक्षणें पर एक दृष्टि डालनी होगी। सर्वप्रथम काव्य लक्षण निर्धारण का प्रयास नाट्य शास्त्र के प्रणेता' भरतमुनि' से आरम्भ हो जाता है। आचार्य भरत का मुख्य विवेच्य विषय नाट्य है, इसलिए उनकी काव्य परिभाषा भी इस दृष्टि से प्रभावित है। इन्होने काव्य का लक्षण दिया- कि “जो मृदु एवं ललित पदो से समृद्ध, गूढ शब्दार्थ से रहित, जनपदो मे सरलता से समझ में आने वाला, युक्ति युक्त नृत्य प्रयोग के योग्य, बहुरसमार्ग समन्वित, संधियो के प्रयोग से युक्त हो वह नाटक प्रेक्षकों के लिए शुभकाव्य है” भरत के अनन्तर सर्वप्रथम अग्निपुराण में काव्य के स्वरूप पर विचार किया है। 'अग्निपुराणकार' काव्य लक्षण का निरूपण करते हुए कहते है- संक्षेपाद्वाक्यमिष्टार्थ व्यवान्च्छनना पदावली | काव्यं स्फुरदलड्एकारं गुणवद्‌ दोषवर्जितम्‌ | । अग्निपुराण- अर्थात इष्ट अर्थ से युक्त पदावली को काव्य कहते हैं और स्फुट अ लड्‌.कार से युक्त, गुणयुक्त एवं दोषरहित वाक्य को काव्य कहते हैं। किन्तु परवर्ती आचार्यों ने सभ्यता के आदिकाल से ही शब्द और अर्थ के माध्यम से साहित्य का निर्माण होता है ऐसा स्वीकार करते रहे। इसी दृष्टि से प्रत्येक अलड्.कारवादी ने अपने-अपने विभिन्‍न प्रकार के काव्यलक्षण बताये । सर्वप्रथम छठी शता0 के आलकारिक “आचार्य भामह” ने काव्य का लक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा कि- शब्द और अर्थ का साहित्य काव्य है। तात्पर्य यह है कि- कात्य में शब्द और अर्थ की योजना रहती है ये दोनों अन्योन्याश्रित है। काव्य लक्षण में आया हुआ शब्दार्थ साहित्य का आशय- अलंकार युक्त शब्द एवं अर्थ से है। इस प्रकार आचार्य भामह ने काव्य में शब्द और अर्थ दोनों को समान महत्त्व प्रदान किया ।* आचार्य भामह के पश्चात्‌ आचार्य रूद्रट ने काव्य का लक्षण देते हुए कहा कि- काव्य वह है जिसमें शब्द और अर्थ साथ-साथ रहते हों, क्योंकि शब्द काव्य का ही बोधक है। शब्द और अर्थ का सम्मेलन ही साहित्य है। हु मृदुललित पदराद्य गूढशब्दार्थ हींन॑ं, ना.शा. - 16,128 जनपद सुख बोध्यं युक्तिमन्नृत्ययौज्यम्‌ | बहुकृत्तरसमार्ग, सन्धिसन्धान युक्‍तें, स भवति शुभकाव्यं नाटक प्रेक्षकाणाम्‌ ।। 2. शब्दार्थो सहितौ काव्यम्‌ - भामह - काव्यालकार - 1/16




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