पुरुषार्थसिद्धि - उपाय | Purusharthasiddhi - Upaya

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Purusharthasiddhi - Upaya by गंभीरचंद जैन - Gambhirachand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुरुषायंसिदि-उपाय ] [७ टीका।---'व्यवहार निश्चयज्ञाः जगति तीर्थ प्रवर्तयन्ते”--व्यवहार श्ौर निश्वयके जाननेवाले आचायें इस लोकमें धर्मतीर्थका प्रवर्तन कराते हैं । कैसे हैं श्राचा्ये ? 'मुख्योपचार विवरण निरस्त दुस्तर विनेय दुर्वोधाः”--सुख्य श्रौर उपचार कथनसे शिष्यके अपार अज्ञानभावको जिन्होंने नाश किया है, ऐसे है । ् सावाथः--उपदेशदाता श्राचा्यमें भ्रनेक गुण चाहिए । परन्तु व्यवहार और निश्चयका ज्ञान मुख्यरूपसे चाहिए । किसलिए ? जीवोंको अनादिसे भ्रज्ञानभाव है, वह सुख्य ( निश्चय ) कथन और उपचार ( व्यवहार ) कथनके जाननेसे दूर होता है। वहाँ मुख्य कथन तो निश्चयनयके झाधघीन है, वही बताते' हैं । 'स्वाश्रितो निश्ययः, जो शझ्रपने ही आराश्रयसे हो उसको निश्चय कहते हैं । जिस द्रव्यके श्रस्तित्वमें जो भाव पाये जावे, उस द्रव्यमें उनका ही स्थापन करना, तथा परमाणुमात्र भी अन्य कल्पना न करनेका नाम, स्वाश्रित है। उसका जो कथन है उसीको मुख्य कथन कहते हैं । ( सुख्य-निश्वय ) इसको जाननेसे अनादि शरीरादि- परद्रव्यमें एकत्व - श्रद्धानरूप अशज्ञान- भावका अमाव होता है, मेदबिज्ञानकी प्राप्ति होती है, सर्व परद्रव्यसे सिन्न अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूपका अनुभव दोता है । बहाँ परमानन्द दूशामें मग्न दोकर केवल दशकों प्राप्त दोता है । जो अन्ञानी इसको जाने बिना धर्ममें प्रति करते हैं, वे शरीराधित क्रियाकाण्डको उपादेय जानकर, संसारका कारण जो शुभोपयोग उसे ही म्ुक्तिका कारण मानकर, स्वरूपसे अष्ट दोते हुए संसारमें अमण करते हैं । इसलिए मुख्य [ निश्चय ] कथनका ज्ञान अवश्य दोना चाहिए । श्रौर वह निश्चयनयके श्राघीन है इसलिए उपदेशदाता निश्वयनयका ज्ञाता होना चाहिए । कारण कि स्वयं ही न जाने तो शिष्योंको कैसे समभ्ा सकता है ? तथा 'पराश्रितो व्यवद्दार' जो परद्रव्यके आश्रित दो उसे व्यवद्दार कहते हैं । किंचिद्‌ मात्र कारण पाकर अन्य द्रव्यका भाव अन्य द्रव्यमें स्थापन करे उसे पराश्रित कहते हैं । उसीके कथनकों उपचार कथन कहते है । इसे जानकर शरीरादिके साथ सम्बन्घरूप संसार दशा है उसका ज्ञान करके, संसारके कारण जो आखव-बन्घ है उन्हें पहिचान कर, सुक्त होनेके उपाय' जो संवर-नि्जरा है - उनमें प्रवर्तन करे । मज्ञानी इन्हें जाने बिना शुद्धोपयोगी होनेकी इच्छा करता है, वह पहले ही व्यवहार साधनको छोड़कर पापाचरणमें लीन होकर, नरकादिकके दुःख-सकटोंमें जा गिरता है । इसलिए उपचार कथनका भी जान होना चाहिए । और वह व्यवहारनयके भ्राघीन है अतः उपदेश दाताको व्यवहारका भी ज्ञान होना झ्रावश्यक है । इस भांति दोनों नयोंके ज्ञाता आचायें घर्मेती थंके प्रवर्तक होते है, अन्य नही 11४11




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