भावना विवेक | Bhavana Vivek
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
292
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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न 2.
अति
आयुकमे+ की ३ ड्स तर इसें गुणस्थान में ६३ प्रकृतियों की
सत्ता नद्दीं रहती । और इसके फलस्वरूप उस जीव के झनंतज्ञान,
छनंतदर्शन, अनंत सुख श्रीर 'झनंतवीयं नामक छनंतचतुप््य तथ!
चायिक-सम्पक व, क्षायिक-चारित्र, क्ायिक-ज्ञान, क्षायिक-दर्शन;
चायिक-दान, ' क्षायिक-लाभ;. क्षायिक-भोग,. क्षायिकोपभोग,
कायिक-वीर्य- ' ये नव केवल लब्धियां प्रकट हो जाती हैं। उस
अनंत ज्ञानधारी लीव को पूर्ण परमात्मत्व पद प्राप्त हो जाता है !
यद्द तेरदवें शुगास्थानवर्ती जीवनमुक्त सयोग केवली का संक्षेप में
ग्दरूप है। - * कर
ढसके पश्चात, जब जीव चौदहवें गुणस्थान में चढ़ता है तो
उसके कर्मों के ्यागमेंन का द्वार सबेधा वंद हो जाता हैं। तथ।
सत्ता एवं उदयावस्था में प्रांत कर्मो की सर्वोत्कृष्ट निजंरा होने से
चहद कर्मों से सदा के; लिये मुक्त होने के सन्मुख रदता है । शील
के अठार दंजार भेद बताये गये. हूं उनका वह स्वामी हो जातः
है। संवर और सिजंरा का पूर्ण पात्र वह जीव कथ योग से भी
रहित हो जाता ई-और इसी लिये उसको योग केवली कहते हैं /
'उक्त'दोनों गुशस्थानवर्ती जीव .रिडंत. कहलाते: हैं. जिन्हें
झपरनि:श्रेयस के धारक कहना चाहिये । परनि:ःश्रेयस शब्द
सिद्ध पद के लिए कहा जाता है ।. सिद्धपद शुणस्थानों के वाद की
अवस्था हैं. जहां पर केवल आत्मा झपने में ही रमण _ करता है!
'+ा नेरकांयु तियंगायु और देवायु इन तीन आायुकमंकी प्रकृतियों
का नाश होता है |
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