ज्ञानार्णव | Gyanarnav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्न्ट उनके शइवसुरके भाई होते थे) से कह दिया था कि उनके आनेकी किसीको ख़बर नही । उस समय वे नगरमें केवल भोजन लेने जितने समगयरके लिए ही रुकते, शेष समय ईडरके पहाड़ भौर जगलॉमें बिताते । मुनिश्री लल्छु नी, श्रीमोहनलालजी तथा श्री नरसीरखको उनके वहाँ पहुँचनेके समाचार मिल गये । वे शोघ्रतासे ईडर पहुँचे । श्रीमदजीको उनके आगमनका समा वार मिला । उन्होंने कहलवा दिया कि मुनिश्री बाहरसे बाहर जगलमें पहुँचे- यहाँ न भावें । साघुगण जंगछ़में चले मये । बादमें श्रीमदूजो भी वहाँ पहुँचे । उन्होंने मुनिश्री लल्छुजीसे एकांतमें अचानक ईडर आनेका कारण पूछा । मुनिश्रीने उत्तर में कहा कि 'हम लोग अहमदाबाद या खंभात जानेवाठे थे, यहाँ निषृत्ति क्षेत्रों मापके समागममें विशेष लाभकी इच्छासे इस भोर चले आये । मुनि देव रणजी भी पीछे भाते हैं।! इस पर श्रीमदूजोने कहा-- “आप लोग कल यहाँसे विहार कर जावें, देवकरणजीकों भी हम समा- चार भिजवा देते हैं वे भी अन्यत्र विह्वार कर जावेंगे । हम यहाँ गु्तरूपसे रहते हैं --किसीके परिचयमें आानेको इच्छा नहीं है ।* श्रो लल्छजी मुनिने नम्र-निवेदन किया--“आपको भआज्ञानुसार हम चढे जावेंगे परन्तु मोहन- छालजी और नरसीरख मुनियोंको आपके दर्रीन नहीं हुये हैं, आप आज्ञा करें तो एक दिन रुककर चले जावें ।* श्रीमदूजीने इसकी स्वोकृत। दी । दूसरे दिन मुनियोंने देखा कि जंगलमें भाम्रवृक्षके नीचे श्रोमदूजी प्राकृतभाषाको+गाथाभोंका तन्मय होकर उच्चारण कर रहे हैं । उनके पहुँचनेपर भी भाषा घण्टे तक वे गाथायें बोलते ही रहे और ध्यानस्थ हो गए । यह वातावरण देखकर मुनिगण स्रात्मविभोर हो उठे । थोड़ी देर बाद श्रीमदूजी ध्यानसे उठे और “विचारना' इतना कहकर चलते बने । मुनियोने विचारा कि लवुशंकादि निदृत्तिके लिए जाते हाँगे परन्तु वे तो निस्पृहरूपसे चढे हो गये । थोड़ो देर इधर-उधर ट्ूंढ़कर मुनिगण उपाश्रयमें भा गये । उसी दिन शामकों मुनि देवकरणजी भी वहाँ पहुँच गये । सभीको श्रोमदूजीने पहाड़के ऊपर स्थित दिगम्बर, श्वेतान्बर मन्दिरोंके द्रीन करनेकी भाज्ञा दी । बीतराग-जिनप्रतिमाके दर्शनोंसे मुनियोंको परम उल्लास जाग्रत हुआ । इसके परचात्‌ तीन दिन भोर भी श्रीमदजीके सत्समागमका लाभ उन्होंने उठाया । जिसमें श्रीमदूजीने उन्हें 'द्रव्यसंप्रह' और “आत्मानुशासन'---प्रन्थ पूरे पढ़कर स्वाध्यायके रूपमें सुनाये एवं अन्य भी कल्याणकारी बोघ दिया । # १. मा पुजझह मा रउजजह मा दुस्प्रह इठणिट्रअत्येद् । थिरमिच्छ् जइ चित्त विचित्त्ाणप्पसिद्धीए ॥४८॥ ९' जे किंचि वि वितितो णिरोहवित्ती हवे जदा साहू । लडूणय एयस तदाहु ते णिच्चमं ज्ञाण ॥५५॥ ३. मा चिट्टह मा जपह मा चितह कि वि जेग होइ थिरों । अप्पा भप्पम्सि रअ! इगमेव पर हुवे उल्माण ॥५६॥| (हिन्यसंत्रह) --भरीमदूजीने बद 'द६दुदब्यसप्रह”अ्न्य देडरके दि० जैन शास्त्र भण्डारमेंसे स्वयं निकलवाया था ।




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