ज्ञानार्णव | Gyanarnav
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
462
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about शुभ चंद्राचार्य - Shubh Chandracharya
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्न्ट
उनके शइवसुरके भाई होते थे) से कह दिया था कि उनके आनेकी किसीको ख़बर नही । उस
समय वे नगरमें केवल भोजन लेने जितने समगयरके लिए ही रुकते, शेष समय ईडरके पहाड़ भौर
जगलॉमें बिताते ।
मुनिश्री लल्छु नी, श्रीमोहनलालजी तथा श्री नरसीरखको उनके वहाँ पहुँचनेके समाचार मिल
गये । वे शोघ्रतासे ईडर पहुँचे । श्रीमदजीको उनके आगमनका समा वार मिला । उन्होंने कहलवा
दिया कि मुनिश्री बाहरसे बाहर जगलमें पहुँचे- यहाँ न भावें । साघुगण जंगछ़में चले मये । बादमें
श्रीमदूजो भी वहाँ पहुँचे । उन्होंने मुनिश्री लल्छुजीसे एकांतमें अचानक ईडर आनेका कारण पूछा ।
मुनिश्रीने उत्तर में कहा कि 'हम लोग अहमदाबाद या खंभात जानेवाठे थे, यहाँ निषृत्ति क्षेत्रों
मापके समागममें विशेष लाभकी इच्छासे इस भोर चले आये । मुनि देव रणजी भी पीछे भाते हैं।!
इस पर श्रीमदूजोने कहा-- “आप लोग कल यहाँसे विहार कर जावें, देवकरणजीकों भी हम समा-
चार भिजवा देते हैं वे भी अन्यत्र विह्वार कर जावेंगे । हम यहाँ गु्तरूपसे रहते हैं --किसीके
परिचयमें आानेको इच्छा नहीं है ।*
श्रो लल्छजी मुनिने नम्र-निवेदन किया--“आपको भआज्ञानुसार हम चढे जावेंगे परन्तु मोहन-
छालजी और नरसीरख मुनियोंको आपके दर्रीन नहीं हुये हैं, आप आज्ञा करें तो एक दिन रुककर
चले जावें ।* श्रीमदूजीने इसकी स्वोकृत। दी । दूसरे दिन मुनियोंने देखा कि जंगलमें भाम्रवृक्षके
नीचे श्रोमदूजी प्राकृतभाषाको+गाथाभोंका तन्मय होकर उच्चारण कर रहे हैं । उनके पहुँचनेपर भी
भाषा घण्टे तक वे गाथायें बोलते ही रहे और ध्यानस्थ हो गए । यह वातावरण देखकर मुनिगण
स्रात्मविभोर हो उठे । थोड़ी देर बाद श्रीमदूजी ध्यानसे उठे और “विचारना' इतना कहकर चलते
बने । मुनियोने विचारा कि लवुशंकादि निदृत्तिके लिए जाते हाँगे परन्तु वे तो निस्पृहरूपसे चढे हो
गये । थोड़ो देर इधर-उधर ट्ूंढ़कर मुनिगण उपाश्रयमें भा गये ।
उसी दिन शामकों मुनि देवकरणजी भी वहाँ पहुँच गये । सभीको श्रोमदूजीने पहाड़के ऊपर स्थित
दिगम्बर, श्वेतान्बर मन्दिरोंके द्रीन करनेकी भाज्ञा दी । बीतराग-जिनप्रतिमाके दर्शनोंसे मुनियोंको
परम उल्लास जाग्रत हुआ । इसके परचात् तीन दिन भोर भी श्रीमदजीके सत्समागमका लाभ उन्होंने
उठाया । जिसमें श्रीमदूजीने उन्हें 'द्रव्यसंप्रह' और “आत्मानुशासन'---प्रन्थ पूरे पढ़कर स्वाध्यायके
रूपमें सुनाये एवं अन्य भी कल्याणकारी बोघ दिया ।
# १. मा पुजझह मा रउजजह मा दुस्प्रह इठणिट्रअत्येद् । थिरमिच्छ् जइ चित्त विचित्त्ाणप्पसिद्धीए ॥४८॥
९' जे किंचि वि वितितो णिरोहवित्ती हवे जदा साहू । लडूणय एयस तदाहु ते णिच्चमं ज्ञाण ॥५५॥
३. मा चिट्टह मा जपह मा चितह कि वि जेग होइ थिरों । अप्पा भप्पम्सि रअ! इगमेव पर हुवे उल्माण ॥५६॥|
(हिन्यसंत्रह)
--भरीमदूजीने बद 'द६दुदब्यसप्रह”अ्न्य देडरके दि० जैन शास्त्र भण्डारमेंसे स्वयं निकलवाया था ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...