प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन | Prasad Ke Natako Ka Shastriy Adhyayan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
280
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)| [ एकांकी रुपक : सल्नन और श्रायश्चित्त
'प्रायश्चित्त' का कथानक इतिहास की एक किंबदंती का आश्रय
लेकर खड़ा है। प्रतिकार एवं द्ेषबुद्धि से प्रेरित होकर जयबचंद में
दुर्भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। परिशाम-स्वरूप बह छापने जामाता
प्रथ्यीराज पर चढ़ाई करता है और युद्ध में उसे सारकर पाशबिक
प्रसन्नता से नाचने लगता है। उसी समय झझाकाशबवाणी के रूप में
उसे दुष्ट छृत्यों के लिए भर्सना मिलती है। उस भत्सेना को सुनकर
और इस रक्तपात की विभीषिका के मूल में अपने को पाकर उसके
हृदय सें पश्चात्ताप उत्पन्न होता है। निरजेन तथा शन्य अंतरिक्ष के
कोने से उसे अपनी प्रिय पुत्री संयोगिता की मूर्ति काँकती हुईं दिखाई
पड़ती है । सहसा प्रायश्चित्त की बह भावना स्थायी रूप धारण करती
है और अधेविक्षिम अवस्था में ही वह रणुभमि से लौटता है। उसी
समय मुद्दम्मद गोरी उस पर चड़ाई करता है और बह सैन्य-नियंत्रण
का सारा दायित्व झपने पुत्र तथा मंत्री पर छोड़, स्तयं राजकीय
कार्यों से तटस्थ होकर गंगा में धँसकर प्राण-बिसजेन करता है ।
वास्तव में इन एकॉकी रूपकों में न तो कथानक की ही कोई
विशेषता है न चरित्र-चित्रण की । प्रसिद्ध घटनाओं का इनमें नाटकीय
रूप में उल्लेख सात्र है । कथांश का क्षेत्र इतना संकुचित है कि उसके
नियंत्रण एवं संविधान में लेखक को कितनी कुशलता दिखानी पड़ी है
इसका ज्ञान दही नहीं हो पाता । लेखक का उद्देश्य केवल उन घटनाओं
का वर्णन है; अतएव पात्रों के चरित्र के विषय में वह मुक्त है । घटना-
रथ
क्रम को देखने से पात्रों के चरित्र का आभास भर मिलता है. और लघु
सीमा में उतने से अधिक संभव भी नहीं है । 'सलन' में “इत तें ये
पाहन हनें, उत तें वे फल देत' का ही उदाहरण है । एक छोर दुराश्रह्मी,
उच्छ'खलता का स्वरूप, अहंकार में चूण और संतोषी भ्राताों से
झंतरिक देष रखनेवाला दु्ेत्त दुर्योधन है और दूसरी झोर सल्ननता
के झवतार, मलुष्य की दुर्भावनाथों एवं पशुताओं से सबेथा मुक्त शुद्ध
बुद्धि के घर्मराज युधिष्टिर हैं । एक पाप में और दूसरा पुण्य में अचनु-
रक्त है। एक ओर उम्र स्वभाव की विद्वेष-ज्वाला है और दूसरी ओर
शीतलता का सागर । दुर्योधन ने नीचता पर कमर कसी है और
युधिष्टिर साघुबत्ति का परित्याग पाप मानते हैं । अंत में झछाकर लेखक
से 'सत्यमेव जयते” का ही प्रतिपादन किया है। इस प्रकार के राम-
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