प्रेमचंद रचना संचयन | Premchand Rachana Sanchayan

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Premchand Rachana Sanchayan  by प्रेमचंद - Premchand

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प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1934 में लाहौर में प्रदर्शित हुई । बम्बई में प्रदर्शित करने की अनुमति सेंसर ने नहीं दी। यह कम्पनी जब घाटे के कारण बन्द हो गयी तो प्रेमचन्द 3 अप्रैल 1935 को बम्बई छोड़कर बनारस लौट आये । अपने फिल्‍मी जीवन की अनुभवों के आधार पर उन्होंने फिल्म-निर्माताओं की फिल्म-निर्माण को इंडस्ट्री समझने पवित्र भावनाओं को एक्सप्लॉइट करने तथा अश्लीलता को मनोरंजन मानने की कट आलोचना की । उनका निष्कर्ष था-स्वतन्त्र लेखन-कार्य में चाहे धन न हो मगर सन्तोष अवश्य है| लेकिन बम्बई में रहते समय प्रेस की हालत ख़राब होती गयी । प्रवासीलाल वर्मा प्रेस के व्यवस्थापक थे । उनके दुर्व्यवहार तथा महीने का वेतन न मिलने पर कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी । यद्यपि तेरह दिन के बाद कर्मचारियों से समझौता हो गया किन्तु प्रेमचन्द भारत में मजदूरों की विजय के समाचार छपने से आहत हुए और उन्होंने इसके सम्पादक को पत्र लिखकर प्रेस की घाटे की स्थिति से परिचित कराते हुए लिखा कि मैंने कर्मचारियों को बेकार हो जाने के डर से प्रेस बन्द नहीं किया । मैंने कभी कर्मचारियों को एक्प्लॉइट नहीं किया बल्कि उनके द्वारा एक्सप्लॉइट किया जा रहा हूँ। मैंने इस प्रेस से एक पैसा भी नहीं कमाया फिर भी उन्हें साहित्य और समाज की सेवा तथा मजदूरों की वकालत करनेवाले प्रेस से हमदर्दी नहीं हुई । मैं खुद मजदूर हूँ और मजदूरों का दोस्त हूँ और उनसे पूरी सहानुभूति है । प्रेमचन्द अब धक चुके थे । उन्होंने अनेक अप्रिय स्थितियों में अपने जीवन को आगे बढ़ाया और विचलित नहीं हुए किन्तु उनका शरीर रोगों से क्षीण होने लगा । उन्हें 6 जून 1936 को लमही गाँव लौटने पर खून की पहली उल्टी हुई और एक महीने के बाद पुनः खून की उल्टी हुई । इस अवस्था में उन्होंने महाजनी सभ्यता लेख तथा मंगलसूत्र अधूरे उपन्यास के पृष्ठ लिखे और हंस को पुनर्जीवित किया । वे इलाज के लिए लखनऊ भी गये पर उनकी जीवन-शक्ति क्षीण होती गयी और 8 अक्टूबर 1936 को प्रातः 10 बजे उनका निधन हो गया । प्रेमचन्द एक सच्चे भारतीय थे जिन्हें जीवनयापन के लिए बहुत कम वस्तुओं की आवश्यकता थी। एक सामान्य भारतीय के समान उनकी इच्छाएँ एवं आवश्यकताएँ सीमित थीं। वे एक सामान्य देहाती के समान कपड़े पहनते थे। धोती-कुर्ता उनकी सबसे प्रिय पोशाक थीं । उस समय गाँधी टोपी कुर्ता धोती साफा शेरवानी पाजामा आदि राष्ट्रीय वेशभूषा थी और उन्होंने इन्हें आत्मिक रूप से अपनाया हुआ था । उन्होंने कोट-पैंट पहना अवश्य किन्तु विदेशी वेशभूषा उन्हें पसन्द न थी और उसमें उन्हें अंग्रेजियत की बू आती थी । अमृतराय ने अपने पिता की वेशभूषा का बयान करते हुए लिखा है क्या तो उनका हुलिया था घुटनों से जरा ही नीचे तक पहुँचनेवाली मिल की धोती उसके ऊपर गाढ़े का हल और पैर में बन्ददार जूता । यानी कुल मिलाकर आप उसे दहकान ही कहते भुच्च जो अभी गाँद से चला आ रहा है जिसे कपड़े पहनने की भी तमीज नहीं आप शायद उन्हें प्रेमचन्द कहकर पहचानने से भी इन्कार कर दें लेकिन तब भी वहीं प्रेमचन्द 14 / प्रेमचन्द रचना संचयन




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