हिन्दी शब्दानुशासन | Hindi Shabdanushasan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
84 MB
कुल पष्ठ :
654
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( हे )
मुझे पूर्ण सन्तोष है कि राहुल जी ने टंकित प्रति पूरे मनोयोग से पढ़ी
श्ौर श्रपने सौ काम छोड़ कर श्रावश्यंक परामशं दिए ।
डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक परामश यह दिया था कि “पढ़े “पढ़े
गा' श्रादि में 'इ” प्रस्यय न मान कर 'ए मान लिया जाए, हो श्रच्छा रहे ।
पढ़ + इ « “पढ़े” की श्रपेक्षा 'पढ़+ए न 'पढ़े' वे अधिक पसन्द करते हैं । परन्तु
केसा करने पर भी 'पढ़” के श्रन्त्य “श्र का लोप तो करना ही पड़े गा ! तो
फिर 'शुण”-सन्धि ही सद्दी ! परन्तु ब्ाचाय द्विवेदी ( श्रत्य भाषाविज्ञानियों
की ही तरद ) हिन्दी की 'पढ़' श्रादि धाठद्यों को “हलन्त' मानते हैं ! इस
लिए श्र-लोप की बात ही नहीं; उन के मत से । परन्ठु सुझे तो धपढ़'
दलन्त नहीं, श्रकारान्त दिखाई पड़ रहा है श्रौर इसी लिए द्विवेदी जी
की सम्मतिं मैं ग्रहण न कर सका । 'इ” प्रत्यय मानने में मेरे सामने
एक आकर्षण श्रन्य भी रहा है । वह श्राकषण यह कि “करिदै' श्रादि
भविष्यत् काल की क्रियाद्यों में भी 'इ' प्रत्यय है । तब पढ़े गा” के “पढ़े में
भी 'इ” ठीक । दूसरे; काशी की शोर “राम अरब न पढ़ी” जैसे रूप भविष्यत्
सें बोलते हैँ--'न पढ़ी”-न पढ़े गा । यदद *ई” भी “पढ़े-'पढ़े गा? श्ादि में
टू” प्रस्यय मानने में एक कारण है । श्रजमाषा में 'पढ़े”-प्पढ़े गो” जैसे रूप
होते हैं। वहाँ अर + इ « 'ऐ' सत्धि है श्रौर यहाँ श्कइ न 'ए? । यदि एए?
प्रत्यय मान लें, तो ब्रजभाषा में *ऐ? मिन्न प्रस्यय रहे गा, जो ठीक नहीं ।
प्रस्यय-मेद. क्यों किया जाए, जब कि सत्वि-मेद है ही ।
बस, श्रौर कोई सम्प्रति कहीं सो- नह्टीं-नसिली । मौन सम्मतिलक्णम”
समसिए । “ने” विभक्ति की उद्धघावना जब मैं ने पहले प्रकट की थी,
तब ( १६४३ ) में “डी० वर्मा नाम से एक सजन ने 'लीडर' में मेरा _
मजाक उड़ाया था | पर शब तो सभी मान गए हैं। इस ग्रन्थ मे
कई नई उद्धवनाएँ मिलें गी। हिन्दी की संब्न्ध-विभक्तियाँ ( के; रे,
ने ) प्रकट हुई हैं। का; के, की-ूरा; रे, री-नना; ने नी संबन्ध-
ग्रत्यय हैं, विभक्ति नहीं । यह बात तो ब्रजमाषा-व्याकरणु में ही प्रकट कर दी
गई थी । अब ( के, रे; ने ) संब्न्ध-विभक्तियाँ स्पष्ट हो गई हैं>>उन संबन्ध-
प्रत्ययों से भिन्न । इस से हिन्दी-व्याकरण का स्वरूप निखर उठा है। इन
विभक्तियों के उद्धव की परम्परा भी उद्धावित की गई है । पहले “व्याकरण”
था कहाँ हिन्दी का ? राम ने रोटी खाई' को लोग “कतृंवाच्य” क्रिया सम-
माया करते थे ! का; के, की” को विभक्तियाँ कहा करते थे ! “ने” को कररा-
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