हिन्दी शब्दानुशासन | Hindi Shabdanushasan

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Hindi Shabdanushasan by किशोरीदास वाजपेयी - Kishoridas Vajpayee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( हे ) मुझे पूर्ण सन्तोष है कि राहुल जी ने टंकित प्रति पूरे मनोयोग से पढ़ी श्ौर श्रपने सौ काम छोड़ कर श्रावश्यंक परामशं दिए । डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक परामश यह दिया था कि “पढ़े “पढ़े गा' श्रादि में 'इ” प्रस्यय न मान कर 'ए मान लिया जाए, हो श्रच्छा रहे । पढ़ + इ « “पढ़े” की श्रपेक्षा 'पढ़+ए न 'पढ़े' वे अधिक पसन्द करते हैं । परन्तु केसा करने पर भी 'पढ़” के श्रन्त्य “श्र का लोप तो करना ही पड़े गा ! तो फिर 'शुण”-सन्धि ही सद्दी ! परन्तु ब्ाचाय द्विवेदी ( श्रत्य भाषाविज्ञानियों की ही तरद ) हिन्दी की 'पढ़' श्रादि धाठद्यों को “हलन्त' मानते हैं ! इस लिए श्र-लोप की बात ही नहीं; उन के मत से । परन्ठु सुझे तो धपढ़' दलन्त नहीं, श्रकारान्त दिखाई पड़ रहा है श्रौर इसी लिए द्विवेदी जी की सम्मतिं मैं ग्रहण न कर सका । 'इ” प्रत्यय मानने में मेरे सामने एक आकर्षण श्रन्य भी रहा है । वह श्राकषण यह कि “करिदै' श्रादि भविष्यत्‌ काल की क्रियाद्यों में भी 'इ' प्रत्यय है । तब पढ़े गा” के “पढ़े में भी 'इ” ठीक । दूसरे; काशी की शोर “राम अरब न पढ़ी” जैसे रूप भविष्यत्‌ सें बोलते हैँ--'न पढ़ी”-न पढ़े गा । यदद *ई” भी “पढ़े-'पढ़े गा? श्ादि में टू” प्रस्यय मानने में एक कारण है । श्रजमाषा में 'पढ़े”-प्पढ़े गो” जैसे रूप होते हैं। वहाँ अर + इ « 'ऐ' सत्धि है श्रौर यहाँ श्कइ न 'ए? । यदि एए? प्रत्यय मान लें, तो ब्रजभाषा में *ऐ? मिन्न प्रस्यय रहे गा, जो ठीक नहीं । प्रस्यय-मेद. क्यों किया जाए, जब कि सत्वि-मेद है ही । बस, श्रौर कोई सम्प्रति कहीं सो- नह्टीं-नसिली । मौन सम्मतिलक्णम” समसिए । “ने” विभक्ति की उद्धघावना जब मैं ने पहले प्रकट की थी, तब ( १६४३ ) में “डी० वर्मा नाम से एक सजन ने 'लीडर' में मेरा _ मजाक उड़ाया था | पर शब तो सभी मान गए हैं। इस ग्रन्थ मे कई नई उद्धवनाएँ मिलें गी। हिन्दी की संब्न्ध-विभक्तियाँ ( के; रे, ने ) प्रकट हुई हैं। का; के, की-ूरा; रे, री-नना; ने नी संबन्ध- ग्रत्यय हैं, विभक्ति नहीं । यह बात तो ब्रजमाषा-व्याकरणु में ही प्रकट कर दी गई थी । अब ( के, रे; ने ) संब्न्ध-विभक्तियाँ स्पष्ट हो गई हैं>>उन संबन्ध- प्रत्ययों से भिन्न । इस से हिन्दी-व्याकरण का स्वरूप निखर उठा है। इन विभक्तियों के उद्धव की परम्परा भी उद्धावित की गई है । पहले “व्याकरण” था कहाँ हिन्दी का ? राम ने रोटी खाई' को लोग “कतृंवाच्य” क्रिया सम- माया करते थे ! का; के, की” को विभक्तियाँ कहा करते थे ! “ने” को कररा-




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