भारतीय नीति - विज्ञान | Bharatiy Niti - Vigyan
श्रेणी : मनोवैज्ञानिक / Psychological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
287
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका ११
नठते हैं और विचारशील व्यक्ति के मन में तो वे पग-पग पर उठा
करते है| श्रौर जव तक इनका सन्तोपजनक उत्तर नहीं मिल जाता, तब
तक मनुष्य को चेन नहीं पड़ता । इस प्रकार की व्यग्रता का सर्वोत्तम
उदाहरण तो हमं श्रीरामचन्द्र जी के जीवन में मिलता है। उन्होंने
अपनी जिज्ञासा का सन्तोषजनक उत्तर मांगते हुए अपने गुरु से यहां तक
कह डाला कि यदि आप इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकते अथवा में
स्वयं उन्हें अपने आप हल नहीं कर सकता, तो
“जन भक्ष्ये न पिचाम्यम्बु नाहँ परिदधेउम्बरम ।
करोमि नाहं व्यापारं स्तानदानाशनादिक्म् ॥
नच तिष्ठामि काये पु सम्पत्खापदशासुच ।
नक्िंचिदपि वाञ|्छामि देहत्यागाहते पुनेः॥
(यो० वा० १ । ३१। २२,२३।
न में अन्न स्वाऊंगा, न पानी पीऊंगा, न कपड़े पहनुंगा और न स्नान-
दान आदि नित्य के कामों को करूंगा | किसी काम में अपने आपको
नहीं लगाऊंगा, और न आपत्ति व सम्पत्ति की परवाह करूंगा। में
शरीर-त्याग के सिवाय कुछ नहीं चाहता |,
इस जिज्ञासा का होना ओर इन प्रश्नों के हल करने का प्रयत्न ही
मनुष्य को पशुओं से ऊंचा प्राणी बनाता है, वरना प्राकृत शआ्रावश्यक-
ताश्रों, प्रवृत्तियों और शारीरिक शक्तियों में मनुष्य और पशुओं में भेद
ही क्या है ? किसी ने ठीक ही कहा है--
“आहारनिद्राभयमेथुनानि समानमेतत्पशुभिनेराणाम् ।॥
ज्ञानं हि नगामधिक्रो विशेषो ज्ञानेन हीना पशुभिःसमाना: ॥”
अर्थातू--आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि सभी प्राकृत प्रवृत्तियां
पशुओं व मनुष्यों में समान ही हैं। मनुष्यों में केवल ज्ञान (जानने की
च्छा व शक्ति) ही एक अधिक एवं विशेष गुण है | जिसमें ज्ञान नहीं,
वह तो निरा पशु-समान है ।
इस जिज्ञासा को जागत करना श्रनौर इसे मरने न देना मनुष्य का
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