समकालीन पाश्चात्य दर्शन | Samakaleen Pashchatya Darshan

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Samakaleen Pashchatya Darshan by यशदेव शल्य - Yashdev Shalya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) श्रभिप्राय, या कहें स्वरूप, सरल प्रतिज्ञाग्रों से श्रमिन्न है तब किसी प्रतिज्ञा को तब तक लोक संज्ञान-परक प्रतिज्ञा नहीं कहा जा सकता जब तक लोक-संज्ञान विदलेपणा को प्रमाशित नहीं करे । श्रौर जंसा कि हमने ऊपर कहा, मुर का विश्लेपण लोक-संज्ञान को स्वीकृत नहीं हो सकता, उसे परिचित भी नहीं लग सकता, परिणामत: यह नहीं कहा जा सकता कि मुर लोक-संज्ञान की प्रतिज्ञाशों को स्वत: सिद्ध सत्य मान रहे थे । हमारी उपरोक्त श्रापत्ति शायद कुछ लोगों को दूर की कौड़ी लाने जैसी वात लगे, किन्तु थोड़ा गंभीरता से देखने पर ऐसा नहीं लगेगा । “मेरे हाथ में पैन है वाक्य लें । लोक- संज्ञान के श्रनुमार यह कथन या तो सत्य है ग्रथवा ग्रसत्य है । किन्तु यहां कथन क्या है जो सत्य या श्रस्रत्य है, यह प्रइन विदलेपण को प्रेरित करता है। श्रब, इस कथन के स्वरूप का निष्चय किये बिना सत्यता का प्रे्न तय नहीं हो सकता । क्रिसी के लोक-संज्ञान का समथंक होने का ध्रवं है कि वह लोक-संज्ञान को स्वीकार्य कथन का श्रनुसन्धान करे । किन्तु सुर ध्रनुसन्घान कर जो कथन लाये है वह ऐसा है जैसे कथन को उचित बताने के लिये रसल झवसर पहले यह कहते हैं कि “लोक-संजान (मुढ़तावश ?) यहां समता है कि कुछ पैन-वस्तु है...” श्रादि । रसल यहां विल्कुल ठीक है, लोक-संज्ञ न यही समभाता है, श्रौर जिसे लोक-संज्ञान का समर्थन करना है उसे विश्लेपण की बात कह कर जो चाहे कहने का श्रघिकार नहीं है । यह प्रापत्ति जितनी थुर के ऐन्द्रिय विपयों के विश्लेपण पर लागू होती है उतनी ही, या दायद उससे भी श्रघिक, मे तिक प्रसंग के विश्लेपण पर लागु होती है । किन्तु यहां हम उसकी चर्चा नहीं करेगे । यहां यह द्रष्टव्य है कि लोक-संज्ञान का समयंनर मर के श्रतिरिक्त किसी ने इस रूप में नहीं किया, भ्रन्यों ने केवल लोक-संज्ञान को, विज्ञान के श्रतिरिक्त, दा निक विचार का --श्रालोचना का--विपय माना, समर्थन का नहीं । कक. रसल श्रौर सुर के प्रकर्ष-काल में ही वियेना में एक नये दाशंनिक सम्प्रदाय की स्थापना हुई जिसका नाम लॉजीकल पॉजिटिविज्म (ताकिक प्रत्यक्षवाद ) रखा गया । यहां प्सम्प्रदाय की स्थापना” पद का प्रयोग जानवूकत कर किया गया है । चियेना में श्रव से लगभग ४० वर्ष पूर्व कुछ दा्शंनिकों, वैज्ञानिकों तथा गणितजों ने सम्मिलित होकर एक सम्प्रदाय का निर्माण किया जिसे 'वियेना सकेल' नाम दिया गया श्रौर सम्प्रदाय की द्शन-प्रयाली भ्रथवा दृष्टिकोण को विशेषपित करने के लिए इसका नामकरण ताकिक प्रत्यक्षवाद (लॉजीकल पॉजिटिविज्म) किया गया । १९६२६ में इस सम्प्रदाय का एक घोपणा-पत्र मिकाला गया जिसका शॉर्पक्र था “विधेना-सकेल : इसका वैज्ञानिक हप्टिकोण ।” यह सम्प्रदाय रसल- विटिगंस्टाइन का उत्तराधिकारी कहा जा सकता है, किन्तु यह उनसे बहुत श्रघिक उम्र श्र संकुचित है । दया प्ौर रसल के समान यह ज्ञान का स्रोत केवल ऐन्द्रिय श्नुभव को ही मानता है, भप्रौर दूसरा श्रादर का स्थान केवल तर्क॑ श्रौर गणित को देता है । किन्तु तक को श्रौर गणित को भी, जिसे यह ताकिक मानता है, यह ज्ञानात्मक नहीं मानता; प्र्थात्‌ इसके




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