अपूर्व अवसर | Apoorva Avasar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
174
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दे
'यथाधे सत्समांगम द्वारा शुद्धार्मा की, शंतरंग प्रतीति श्रत्यन्त पुरुषा्थ
से की तब से स्वभाव में परिणमन हुआ। बह परिणमन ही इस
श्ात्मा की शुद्ध 'अवस्था का. काल है; वह .'स्वकाल' कहलाता है ।
आत्म-ज्ञान द्वारा स्वभाव का भान रहता है किन्तु अभी पूर्ण शुद्ध
पर्याय प्रकट नहीं हुई, उसे पूर्ण करने के लिए स्वरूप के भान सहित
यह भावना है ।
इस “अपूवें सें ऋ्नेक अथे गर्भित हैं, इसलिए इस 'अपू्व
मंगलीक से भावना का श्रारम्भ किया जांता हैं । पंहले '्नुस्पन्न अपू्वे
( भावकाल 3 केसे आएगा ? साधक इस मनोरथ को साधता है ।
मनोरय दोने में मन तो निमित्त है किन्तुं ज्ञान हारा उसको स्वीकार
'कर साधक जीव स्वरूप चिंतन की 'जागृति को उद्योत करता है ।
स्वरूप की भावना का ( मनोरथ का ) प्रवाह चलता है, उसके साथ
स्वभाव परिणति का प्रवाह भी चलता. है । उस भावना के' साथ मन
का सिमित्त है तथा राग का अंश है: उससे विचार का क्रम होता हे
और उसमें लोकोत्तर पुण्य का बंध :सहज ही हो जाता है; किन्तु
प्रारम्भ से ही उसकी अस्वीकारता है ।.उसे भेदों - और' विकल्पों का
श्ादर नहीं है किन्तु अरतीन्द्रिय: भावमनोस्थ का स्वरूप चिंतवन है ।
. त्तत््वस्वरूप की भावना बिचारते हुए श्रपने मन का निमित्त श्याता है ।
'बूणे शुद्धात्म स्वरूप सिद्ध परमात्मा जैसा है ऐसा अपना स्वरूप लक्ष्य
में रखकर पूर्णता के लक्ष्य से श्रीमद् श्रात्मस्वरूप की भावना करते
हैं । ऐसी यथा निर्मन्य दशा; स्वरूप स्थिति का अपूव॑ अवसर कब
'होगा, ऐसी अपने स्वभाव की भावना दै। . .
'पों कब . अंतरंग ..एवं ब्रहिरंग से निम्नेन्थ होऊँगा अर्थात्,
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