अमीना | Amina

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Amina by नरेन्द्र हरित - Narendra Harit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१्थ वो श्रसलम भाई को समभााएँ । ्तौबा करो बहन तौबा । उस झ्ादमी को तो हमेशा यही शक रहता है कि मैं उसकी शिकायत हर एक से करती हूँ और भ्रपना दुखड़ा रोती हूँ । इस पंर वह जल भुन जाता है श्रौर मुझे बुरी तरह पीटता है । प्तो फिर ? पु मेरे हाल पर छोड़ दो । मेरी हालत में तबदीली नहीं झ्रा सकती. मौत ही मुक्त इससे छुटकारा देगी । ऐसा लगता है कि तुम जिंदगी से ऊब गई हो भ्रमीना ? ऊब ही नहीं गई बुरी तरह परेशान हूँ कि श्रगर ये बच्चे न होते तो मैं जहर खा लेती इस दुनियाँ से चली जाती । ऐसा मत सोचो जिन्दगी से खेलना एक बहुत बड़ा गुनाह है बहन । मैं बच्चों का मुंह देखकर ही जिंदा हूँ बहन वरना शभ्रब तक का. प्रागे झमीना कुछ भी न बोल पायी । वह सुबक-सुबक कर रोने लगी । जब अ्रमीना ने आआाँचल में मुँह छूपा लिया श्ौर उसको सिसकियाँ बन्द नहीं हुईं तो नूर- महल तनिक झ्रागे बढ़ श्राई। उसने उसका सिर ऊपर उठाया मौर भझ्पने झाँचल से भाँसि पोंछती हुई सहानुभूति भरे स्वर में कहने लगी-- रो-रो कर मन को समभाना भौर घ्राँसुग्रों के घूँट पीना यह भी एक मौत है । हिम्मत से काम लो बहन ऐसी कोई मुदिकिल नहीं जो श्रासान न हो सके । झमीना के पास नूरमहल जितनी देर बैठी वह उसे समभ्ाती ही रही फिर जब चली तो भी तसलली देकर । झमीना नूरमहूल के प्रति सोचती रही कि उसका जीवन कितना सुखी है । यद्यपि उसके कोई सस्तान नहीं थी फिर भी वह गमगीन नहीं रहती । उसका शौोहूर उसके वद्च में है भ्रौर वह हमेशा उसे खुश रखता । श्रौरत को और चाहिए भी क्या ? अगर मर्द उसके माफिक है तो फिर फली नहीं समाती भ्रौर उसके होठों पर हमेशा हंसी ही नजर आती है । देर तक झ्रमीना नरमहल के बारे में ही विचार करती रही फिर उसने एक जुम्हाई ली जगह से उठी पाजामा एक भ्ोर रख दिया झ्रौर नीले भ्राकाश की श्रोर देखने लगी । घुँघला सा पड़ रहा था । दिशाएँ घूमिल हो रही थीं । साँझ श्रा रही थी । पक्षियों के बसेरे पर जाते हुए उनके कलरव ने यह स्पष्ट कर दिया।




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