विश्वंभरा | Vishvambhara

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Vishvambhara by सी॰ नारायण रेड्डी - C. Narayan Reddi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक मैं जन्पा ही नही था सिर पर नीला परदा पैरो तले गदँ की परत । परदे पर जडे काँच के टुकडों में जुगुनुओ की पलकों हिल उठी । अगि्निर्पिडो से छूट निकले कच्चे कातिगण बिछ गए दूघ की मलाई जैसे भाप में वह परदा सुलग उठा बिखर पड़े जड़े काँच के टुकडे । इस परत मे फूट पढे बीजों के गर्भ-कोशो के बिरवो की नसो मे खून भर उठा । टाँग टूटकर घरा पर गिरे मेघ्रो के फिर से टाँगे उग भाई । इस परदे में जड़ मौन का अँगडाई लेना ही क्या था पख, खुर, सींग, दाढ दिशागमों में ललकार उठे । मैं जन्मा ही नही था मेघो ने कितनी प्रतीक्षा की होगी विश्वंभरा | १७




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