पञ्चतन्त्रम् | Panchtantram

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Panchtantram by श्यामाचरण पाण्डेय - Shyamacharan Pandeya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कमान १४ पच्चतन्न्ने मी इति मत्वा चह्निना: संस्कृतः”--इति । तच्छत्वा साथंवाहः कृतशतया स्नेहांद्र- हृद्यस्तस्योध्वंदेहिकक्रिया चूषोत्सर्गादिकाः सर्वाश्वकार । शीवको5प्यायुःदोषतया यमुनासलिकलमिश्र: शिशिरतरवातेराप्यायितशरीरः कथख्िदप्युव्थाय यसुनातटसमुपपेदे । तत्र सरकतसदशानि बालतृणाधाणि सक्षयन्कतिः पयेरद्दोभिहरवूषभ इव पीनः ककुदूमान्‌ बलवांश्व संबृत्त, प्रत्यहं वस्मीकशिखराध्ाणि श्ज्ाभ्यां विंदारयन्प्रगजेश्वास्ते । साध्विद्मुच्यते-- अरक्षितं तिष्ठति देवरक्षितं, सुरक्षित देवहतं विनश््यति । जीवत्यनाधोर्थपि वने विसजिंतः, कृतश्रयत्नोजपि यृहे विनश्यति ॥ २० ॥ ब्याख्या--असौ न वणिक्‌ वघमानः, तदवधाय न्तसाधिकवचन स्वी कृत्य रक्षापुरुषान्‌ >> रक्षकान्‌, निरूप्य न नियुज्य, अशेषसाधम्‌- निखिल संघमिति भावः, साथवाहं न नैगमं ( वणि- चसझाविपंमिति यावत्‌; 'वेदेंहकः साथंवाहों नैगमो वणिजों वणिक्‌” इत्यमर), सा्थवाइस्याभीध: न. , वणिक्प्रमुखस्य प्रिय» संस्क्वतः न दग्घः, औध्वंदेहिकक्रिया न पिण्डद।नादिक्रिया, शिशिरतरवा तै: न झीतलसमी रे: ( ठण्डी हवा से ), उपपेदे न प्राप्ततानू , मरकतसदशानि ( गारुत्मतं मेरकतभर्मगर्भों ' हुरिन्मणि:, इत्यमरः ) बालतूणायाणि -नूतनतणाओाणि ( नयी जमी ' हुई मुलायम घासों की. फुनगी ) हरइषभ इव नल शिववृषम इव, नत्दिसदृशः, पी नः नन्स्थूलर, ककुझ्ानून अज्ञमान्‌ , मांसल इत्यर्थ: ( वृषा जे ककुदो 5खियामित्यमरः ) वल्मीकशिखराधाणि न वामलूरायाणि । दैवरक्षित॑ न भाग्येन रक्षितम्‌ » अर क्षितम्‌ >न अकतरक्षाविधानम्‌ , वने विसर्जितः: न कानसे त्यक्तद, अनाथ: . अस्वामिक कृतप्रयत्त: नः कृतरक्षाविधानः, विनश्यति > नइयति ॥ २० ॥ हिन्दी--साथियों के आय करने पर उस व्यापारी ने उनकी बात को स्वीकार करके सज्ञीवक के लिये कुछ रक्षकों को नियुक्त कर दिया और शेष साथियों को लेंकर वहाँ से वह चल दिया । रक्षकों ने भी उस जड्जल को भयानक तथा सापद समझकर सश्जीवक को वहीं छोड़ दिया और वे साथवाह के पास चले गये । दूसरे दिन उसके पास उपस्थित होकर उन लोगों ने कहा--“'स्वामिन्‌ ! सकी वक तो मर गया । आपका प्रिय समझकर हमने उसको जला दिया है ।” . उनकी इस बात को सुनकर साथवाहद ने उसके प्रति स्नेह के कारण कृतज्ता व्यक्त करने लिए उस वृषभ की औध्वदेहिक क्रिया, इषोत्सग आदि सभी कृत्य पूण किया। इघर अपनी आयु के शेष होने के कारण सश्नीवक भी यमुना के जल से मिंश्रित शतल-. वायु के लगने से थोड़ा स्वस्थ दोकर किसी प्रकार उठा और [धीरे-धीरे यमुना के तट पर पहुँच गया । वहाँ मरकतमणि के समान हरी-दरी नवीन एवं. कोमल घासों को खाकर कुछ ही दिनों में वह भगवान्‌ दंडूर के वृषभ की तरह स्थूल, मांसल तथा पुष्ट हो गया । प्रतिदिन वह आसपास में दीमकों द्वारा निर्मित टीलों को. ( उखाड़ कर ) गिराने के बाद इधर-उधर दह्दाड़ता फ़िरता . था । ठीक ही कहा गया है कि--भाग्य द्वारा संरक्षित वस्तु अरक्षित होने पर भी बची रददती है और सुरक्षित रहने पर भी भाग्य के प्रतिकूल होने पर. विनष्ट हो जाती है। वन में अनाथ छोड़ा




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