हसरत मोहानी | Hasarat Mohani

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Hasarat Mohani by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
जीवन-वुत्त है| कमीज उर्स में पहने हुए पहुँच गए। अक्सर पैदल चलते थे। सवारी में बहुत कम सफर करते थे। हमेशा थर्ड क्लास में सफर किया। मिजाज में सादगी बहुत थी। कव्वाली के भी बहुत शौकीन थे और सिनेमा को नापर्संद करते थे । निधन हसरत मोहानी आज़ादी की लड़ाई में पहली पंक्ति के मुजाहिद थे जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आवाज़ उठाई और उनको हिंदुस्तान से निकलने पर मजबूर किया । इसके लिए वह आख़िरे-दम तक मुकाबला करते रहे । 14 अगस्त, 1947 को हिंदुस्तान दो हिस्सों में बैंट गया। मौलाना ने पाकिस्तान बनने के बाद हिंदुस्तान में रहना पसंद किया । उनकी वाणी में वह जादू था जिससे लोगों को ताकत मिलती थी। वह हिंदुस्तान की संसद के सदस्य भी थे। आजादी के बाद जब भारत का संविधुन 6 जनवरी, 1949 को संविधान सभा में मंजूरी के लिए पेश किया गया तो सबकी सहमति जानने के लिए अध्यक्ष ने पूछा कि क्या भारत का यह नया संविधान यहाँ उपस्थित सज्जनों को स्वीकार्य है तो सबने नए संविधान के समर्थन में हाथ उठा दिया, लेकिन अचानक पूरे सदन में एक आवाज़ गूँजी, “मुझे मंजूर नहीं है।' यह अकेली आवाज़ उसी योद्धा पुरुष की थी जिसने 1921 में अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में भारत की संपूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पेश किया था। यह वह जमाना था जब गाँधी जी कांग्रेस पर छाये हुए थे और असहयोग आंदोलन का बहुत ज़ोर था। गाँधी जी हसरत के इस कदम से घबरा गए, मगर हसरत अपनी बात पर जमे रहे | उन्होंने जब इसको खुले सत्र में पेश किया तो किसी ने उसके पक्ष में हाथ नहीं उठाया, लेकिन वक्त का खेल देखिए कि इसी बात को 1929 में जब पं. जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया तो सबने उनके समर्थन में हाथ उठा दिए। इसी तरह नए संविधान की मंजूरी के खिलाफ आवाज उठाई, किसी ने नहीं सुना। उनकी आवाज अब भी सदन के स्तंभों में गूँजती सुनाई देती है और अन्याय की भर्त्सना करती है। ज़ौक का यह शेर किस कदर रंगो-बू की तमन्ना लिये हुए हसरत से अपने कारनामों का जाइजा लेता है : अगर ये जानते कि चुन-चुन के हम को तोड़ेंगे तो गुल कभी न तमनन्‍ना-ए-रंगो-बू करते हसरत की सेहत 1949 से आहिस्ता-आहिस्ता गिरने लगी थी। कभी बीमार पड़ जाते, कभी ठीक हो जाते। बहुत दिनों तक यही सिलसिला चलता रहा। 1950 में आखिरी बार हज किया। इससे पहले दस बार हज कर चुके थे |




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now