पाषाण - कथा | Pashan Katha

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Pashan Katha by राखालदास वंद्योपाध्याय - Rakhaldas Vandyopadhyay

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about राखालदास वंद्योपाध्याय - Rakhaldas Vandyopadhyay

Add Infomation AboutRakhaldas Vandyopadhyay

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
पाषाण-कथा , “्थ के अनंतर फिर नहीं देखा | बचपन में मैं एक बार मूछि्त हो गया था | मूर्छा भंग होने पर देखता क्या हूँ कि मैं युवक हो गया हूँ । सुना है, तुम्हारे इस संग्रहालय में उन जलजंतुभों की अस्थियाँ संगीत हैं । कुछ दिन पूव कोई विरख-केदय गौरांग साधक पवतों का मेदन करके उन सत्र जीव-जंतुभों की भस्थियाँ ले आए थे । समुद्र वेछा में कितने दिनों तक उड़ता हुआ विचरण करता रहा; कह नहीं सकता । रूपांतर होने से पहले की बहुत थोड़ी सी बातें याद रद गई हैं। एक दिन मध्याह्व में प्रचंड सूर्य द्वारा उत्तत वायु के झोकों से प्रताड़ित होता हुआ में अनेक बालका-क्णों के साथ समुद्र-गर्भ में जा गिरा । उस दिन जितनी दूर भा पड़ा, जीवन में और किसी दिन उतनी दूर नहीं भाया था ! मेरी जीवनयात्रा का उसे पहला चरण समझिए । उस दिन इसकी कल्पना भी नहीं यी कि किपठी दिन अतीत काल के साक्ष्य के रूप में, युग-युग का इतिंद्दास सँजोए हुए, मुझे आाजद्ध होकर संग्रहालय में पड़ा रहना पड़ेगा । उठ दिन जिस स्थान पर भाकर गिरा था वहाँ से समुद्र का जल दृटा नहीं, फलतः अपने बचपन का निवास-स्थान मैं फिर कभी नहीं देख सका | दूसरे-दूसरे वाछका-कर्गों के साथ बहुत दिनों तक मैं समुद्र के गर्भ में रदा | हमारी छाती पर से होकर न जाने कितने बेढंगे जलजंतु आाते- जाते रददे थे । हम लोग उनका जन्म लेना और मरण होना देखा करते थे । समुद्र के बाढकामय गर्भ में उनका जन्म होता औौर भामरण वें उसी बाठका क्षेत्र में वास किया करते थे । मर जाने पर उनकी अस्थिवों से शुभ्न बाछका क्षेत्र और अधिक शुभ्न हो उठता था | ठुम




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now