मुमुक्षुवृतान्त | Mumukshavratant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ अध्याय ।] ममलद्त्तान्त । ९१ मेरा निपट ही प्यारा सित्र भ्रकस्मात मर गया जिससे मेरा चित्त छिद गया । मे इस शआपद का निरखते हो मनुष्य को दशा का भली भाति सोच करने लगा और होते हाते मफ के शपनी ददशा का सान दुद्आा । और तब मे इंश्वर की सडिसा श्रार उस के गया का ध्यान करने लगा । इन्हीं बातां का बिचार करते २ सफ पर यह प्रगट हुआ कि जिस को शक्ति ओर बद्धि ऐसी है कि उस ने स्वग और एथिवी के बनाया निश्चय वह ! निदाप ओर परिपूणण अत्यन्त पवित्र न्यायी ज्ञानी दया- न वान प्रयेप्रतापी सवज्ञ घम्मेसय और सवेव्यापक हैगा । आर दइंश्वर के इन गणा का बिचार करते २ में श्रपनो श्ररपवित्रता शरीर खष्टता के भली भांति देखने श्रोर इसी कारण मे श्रत्यन्त दुःख के साथ यह कहके रेइने लगा कि | मे जा अपवित्र ओर चिनेोना और जन्म कसें से श्राज्ञा- भंगी और इंश्वर से भी '्पने के श्रत्यन्त प्रेम करनेवाला । हूं क्याकर श्रपने दंश्वर के साम्हने जाने के साहस कर । स््ार जब सेरो सत्य आवेगी ओर मे इस अस्थिर शरोर क्षा द्ाडंगा ता निश्चय भक्कते उस के ससोप जाना पड़ेगा । दब जा से उस समय से पतले अपने पाए के प्राय- खित्त के लिये का युक्ति ओर सत्य मुक्तिदाता न ठचद्दराऊं और अपने तढे पवित्र और निर्मल न करूं ते निश्नय है कि मक का सदा नरक में रहने को आज्ञा 'गी । तब मे ने देखा कि संसारी फिर अत्यन्त रे रेके घ्राह मारने लगा । उस ज्लात्मण ने यह कहके उसे भरासा दिया कि हे मेरे बेटे मन मे टाढस बाघ तेरो दशा ओर | की दशा से बुरी नहीं क्याकि बत्तमान की जितनी अरघमता और अ पवित्रता है सब दस शरोर से संबन्ध रखती “---ाणणाटााशाापनया था 2 ाााशीएएएल्‍य, «शा




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