प्रसाद वांग्मय - भाग 2 | Prasad Vandmay - Vol. 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रवत्तित किया जिसमें सेना के सम्मुख बृहद्रथ का वध हुआ । हषंचरित में इस घटना को वर्णित करते कहा गया है-- 'प्रतिज्ञा दुबंल॑ च बल दर्शन व्यपदेश दर्शिताध्दोष संन्य: सेनानीरनायों मौर्य बृहृद्रथ॑ पिपेश पुष्यमित्र: स्वाभिनम्‌ु ।' किन्तु, पुष्यमित्र ने कभी अपने को दो अदव- मेध करने पर भी सम्राट नहीं कहा--वह अपने पूर्व पद सेनानी से अधिक सन्तुष्ट रहा । कदाचित, उस अस्थिर राष्ट्र दश। मे सिहासन से अधिक महत्त्व सेना का रहा । अवन्ति के समीपवर्त्ती विदिशा मे उसका वंशमुल था । संवत्‌ १९६२-६३ से संस्कृत नाटकों और काव्यों का पुज्य पिताश्री का सँकलन है, उसमे विक्रमोवेशीय की निणेय सागर द्वारा १८९० ई० मे मुद्रित प्रति के पृष्ठ संख्या १०३ पर उनके द्वारा रेखाकित संवाद इस प्रकार है-राजा-(उपविद्य सोपचारं य्टीत्वा वाचयति ।) स्वस्ति यश रारणात्सेनापति पुष्यमित्रो वेदिशस्तत्रत्यमा युष्यन्त मर्नि मित्र स्नेहात्प रिष्वज्येद मनुदश॑यति । विदितमस्तु । यो$्सौ राजयज्ञदी क्षितेन मथा राजपुत्र शत परिवतं वसुमित्रं गोप्तारमादिश्य वत्सरोपात्त नियमों निरगंलस्तुरंगों विसृष्ट:, स सिन्धोदंक्षिणरोधसि चरन्नइवानीकेन यवनेन प्राधित. । तत उभयों सेनयोमंहा- नासीत्सं मदद: ।) इससे प्रत्यक्ष है कि प्राय तीन दशक पूर्व शुग काल के इस पुष्यमित्र- अग्निमित्र प्रसंग पर, अग्निमित्र-इरावती के लेखक का ध्यान जा चुका था । अपनी पुरी यात्रा में भी खारवेल के हाथीगुम्फा (उदयगिरि) बाले गुहा लेख को भी १९३२ के जनवरी में उन्होने मोमबत्ती जला-जलाकर ध्यान से देखा था । आशा है ये तथ्यपरक सुचनाएँ अध्येताओ के काम की होगी । --रत्नशंकर प्रसाद #१1 : प्रसाद वाडमय




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