रास - लीला : एक परिचय | Raslila : Ek Parichya

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Raslila : Ek Parichya by गोविन्द दास - Govind Dasराम नारायण - Ram Narayan

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

राम नारायण - Ram Narayan

No Information available about राम नारायण - Ram Narayan

Add Infomation AboutRam Narayan

सेठ गोविन्ददास - Seth Govinddas

No Information available about सेठ गोविन्ददास - Seth Govinddas

Add Infomation AboutSeth Govinddas

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
रास के उदय श्रौर थिफास का सक्षिप्त इतिहास ष्र लीलाश के श्रभिनय (स्रनुकरण) की श्रादि श्रारम्मकर्त्ता स्वय ब्रजागनाये हैं । सम्मवत इसी लिये श्रीघर स्वामी जी ने कहा घा-- “रासो नाम बहुनतंकीयुकतों नृत्य विज्षेषः ।” ऐसी दल्षा मे हमारे देश मे रास का रगमच उतना ही प्राचीन है, जितना स्वय श्री कृप्ण भगवान्‌ का ब्रज-्लीला युग । परन्तु क्योकि श्रभी निर्धिवाद रूप से भगवान्‌ कृष्ण के काल का निर्णय नहीं हो पाया है, श्रतः हम यहाँ यही कहना उचित सममहते है कि रास-लीलाओ् के श्रभिनय का श्री गरेश ब्रज में भगवान्‌ कृप्ण के युग मे ही कस-वध से पूर्व हो गया था जो बाद मे सत्र लोक-प्रिय हुप्ा । रास-लीला की व्यापक लोक-प्रियता- भारतीय सस्कृति एक धघर्मंप्राणा सस्कृति है, जिसमे 'वासुदेव' को उपासना श्रत्यघिक महत्त्वपूर्ण रही है । यही कारण है कि भगवान्‌ कृप्ण के सम्बन्ध से रास-लीला का इस सम्पूर्ण देश मे व्यापक प्रचार हुआ । गुजरात के “गर्वा नृत्य' पर रास की स्पष्ट छाप झाज भी विद्यमान है । सुरत के निकट के ग्रामो में मोर पख वाँघ कर देवी के समक्ष जो नृत्य किया जाता है उसे 'घीर्‌या रास' कहा जाता है । यही नही, प्राचीन समय मे भी ब्रजेत्तर भारत मे रास-लीलाश्रो के श्रायोजनो के श्रनेक विवरण उपलब्ध है । कहा जाता है कि १४५वी शताब्दी के प्रसिद्ध कृष्ण-भक्त नरसी मेहता ने एक वार भगवान्‌ कृष्ण की रास-लीला का दर्शन किया था । वे हाथ मे मशाल लिये लीला देख रहे थे । रास के दशंन मे वे ऐसे तल्लीन हुए कि उनका हाथ ही जल गया । हमारे एक श्रमरीकन मित्र ढॉ० नारविन हाइन ने लगभग १० वर्ष पूर्व (जो भ्रमरीका से भारत शभ्राये थे, श्रौर लगभग २ वर्ष तक रास-लीला व उत्तर भारत की लोकवार्त्ता का भ्रघ्ययन करते रहे थे, चलते समय) हमे श्रमरीका मे छपी पुस्तक के एक चित्र की प्रतिलिपि भेंट की थी, जिसमे किसी मरहठा नरेदा के दरवार मे रास-लीला का प्रदर्शन चित्रित है । उस चित्र मे रास-लीला की वेश-भूपा श्राघुनिक वेशा-भूपा से भिन्न है । . मरिपुरी नृत्य घर रास-लीला--यही नही, वर्त्तमान मरिपुरी नृत्य का श्राघार भी रास ही माना जाता है । इस सम्वन्घ में एक रोचक किंवदती इस प्रकार है-- “एक वार मगवानू शिव-दाकर ने श्रपने यहाँ रास का शायोजन किया । रास भारम्भ होने पर किसी प्रकार नृत्य के घुघखूभ्नी की ध्वनि पावंती जी ने सुन ली । उन्होंने रास से लौटकर श्राने पर महादेव जी से स्वय भी रास-लीला दिखाने का भ्रचुरोध किया । महादेव जी ने पाती जी की इच्छा भगवान्‌ श्री कृष्ण को सुनाई, परन्तु वे पुन रास करने को तैयार न हुए । पार्वती जी हृट पकड़ गई त्तव उनका श्रत्यन्त भ्राग्रह होने पर भगवान्‌ कृप्स ने शाकर जी को पुन किसी ऐसे स्थल पर रास प्रायोजित करने की श्रनुमति दे दी जो श्रत्यन्त ही गुप्त हो । बडी चेप्टा करके झकर जी ने एक ऐसा स्थल खोजा शरीर देवताश्रो, गघ्ं श्रौर झप्सराझ को रास मे सम्मिलित होने के निमन्त्रण भेज दिये । निमन्त्रण पाते ही नन्दी मृदग लेकर, ब्रह्मा दाख लेकर श्ौर इन्द्र वेणु लेकर रास के लिए भा पहुँचे । नागराज ने इस झघकार पूर्ण स्थल को




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now