नाथ सम्प्रदाय | Nath Sampradaya

Nath Sampradaya by हजारी प्रसाद द्विवेदी - Hazari Prasad Dwivedi

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हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।

द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नाथसंप्रदायकाबिस्तार क ड पाया जाता है । गो रक्त सिद्धांत संग्रह ( प्र+ २०८) पर कापालिक मत के प्रकट : करने का सनोरंजक कारण बताया गया है। जब विंप्णु ने चौबोीसे अवतार धारण _ किए श्र सस्त्य, कुंम, चुतिह झादि के रूप :सें तियेंग योनि के जीवों की सी क्रीड़ा करने लगे, कृष्ण के रूप में व्यमिवारि भाव अइण किया. परशुराम के रूप में . निरपराध क्त्रियों का मिपात आारस्म किया, तो इन अनथोाँ से कुपित होकर श्रीनाथ ने चौबिस कापालिकों को भेजा । इन्होंने चोबीसों झवतारों से यद्ध करके उनका सिर या कपाल कावकर घारण किया ! इसीलिये ये लोग कापालिक कहदलाए | .... इस समय जयपुर के पावनाथ शाखा वाले अझपनी परम्परा जालंधरनाथ और _ गोपीचन्द से सिल्लाते हैं। थनुश्रति के झनुसार बारह पंथों में से छः स्वयं शिव के प्रवर्तित हैं और बाकी छः गोरखनाथ के । यद्द परम्परा लक्ष्य करने की है कि जालंघरिपा नामक जो संप्रदाय इस समय जीवित है वह जालंघधरपाद का चलाया हुआ है । पहले इसे 'पा पंथ' कहते थे झौर नाथ-माग से ये लोग स्वतंत्र और भिन्न थे । जालंघर या जालंघर नाथ को मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ से अलग करने के लिये कद्दा गया ' है । ज्ञालंघरनाथ झौघड़ थे जब कि मस्स्येंद्रवाथ और गोरखनाथ कनफटा ।* कान चीर _ कर मुद्रा धारण “करने पर योगी लोग कनफटा कहलाते हैं परन्तु उसके पूव भौघड़ कहे _ ज्ञाते हैं । परन्तु सि द्वा न्त वा क्य से जालंघर पाद का जो श्लोक पहले उद्धत किया गया _ है उससे पता चलता हे कि मुद्रा. नाद और त्रिशूल धारण करने वाले नाथ ही इनके उपास्य हैं । झाजकल जालंधरिपा सम्प्रदाय के लोग गोरखना४ द्वारा प्रवर्दित पावनाथी शाखा के ही हैं । परन्तु कानिपा संस्प्रदाय वाले, जिन्हें कोइ-कोई जालन्घरिपा से झम्रिन्न भी सानते हैं घर जो लोग अपने को गोपीचन्द का अनुजर्ती मानते हैं, बारह पंथियों _ से झलग समझे जाते हैं । 5 सपेल्ना था संपेरे इसी सम्प्रदाय के माने जाते हैं । एक॑ धन्य परंपरा के अनुसार बामारग ( वाममाग) संप्रदाय कानिपा पंथ से ही संबद्ध है । 5 इन बातों से यह अनुमान होता है कि कापालिक मांग का स्वतंत्र अस्तित्व था जो बाद में . गोरखपंथी साधघुझ्रों में अन्तभक्त हो गया हैं । गोरखपंथियों से कुछ बातों में ये लोग छात्र भी भिन्न हैं । गोरखपंथी लोग कान के सध्यभाग में ही कुर्डल घारण करते हैं पर कानिपा लोग कान की लोरों में भी उसे पहनते हैं ' यह मुद्रा गोरखनाथी योगियों का _बिह् है. गोरक्षपंथ में इनके अनेक झाध्यात्मिरु अथ भी बताये जाते हैं। कहते हैं यह शब्द मुदू ( प्रसंत्र होना ) श्र रा ( थ्ादान, ग्रहण ) इन घावुद्मों से बना है । ये दोनों चल जीवात्मा और परमात्मा के प्रतोऊ हैं - चेंकि इपसे देवता लोग प्रसन्न होते हैं और सुर १... जालंघरों चसेन्रित्यसुत्तरापथमाशित- २... ब्रि्सम्गोरखनाथपऐण्डदिकनफटायोगीज़,ए० ६७ | है... ब्दी,प्० ६३ ।




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