श्री दशवैकालिक सूत्रम | Shri Dashavaikalik Sutram

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Shri Dashavaikalik Sutram  by आत्माराम जी महाराज - Aatnaram Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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खिन्तामणि कोष में के देवाधिदेव कांड में छः: श्रुत केवली माने हैं, उनमें शय्यंभवजी द्वितीय स्थान में ही हैं । तथाहि-- अथ प्रभव प्रभु: शय्यंभवो यशोभद्वा:, संभूतविजयस्तत: ॥३॥। भदवाहु: , स्थुलभद्र : , श्रुतकेवलिनो हि घट । उपर्युक्त प्रमाणों से इस दशवैकालिक सूत्र की प्रामाणिकता निर्विवाद सिद्ध है। इसे बने आज तेईस सौ वर्ष से कुछ ऊपर पूर्व का सुदीर्घ समय हो चुका है, किन्तु मध्यकाल में किसी भी आचार्य ने इसे अप्रामाणिक नहीं ठहराया । सभी आचार्य बिना वाद-विवाद के इसे प्रामाणिक मानते हैं और चासित्र वर्णन का प्रथम सूत्र मान कर पढते-पढ़ाते आए हैं । यही कारण है कि आज भी यह सूत्र श्वेतांबर आम्राय की स्थानकवासी, मूर्तिपूजक और तेरापथी नामक सभी शाखाओं में बिना किसी पक्षपात के प्रामाणिक माना जाता है और पठन-पाठन में लाया जाता है। जिनवाणी के समान ही इसे मानते हैं । दशवैकालिक नाम क्यों ? इस सूत्र का चारित्रपरक नाम न होकर, एक विलक्षण दशवैकालिक नाम क्यों ? इस प्रश्र के उत्तर मे कहा जाता है कि, यह सूत्र जब सग्रह होकर समाप्त हुआ, तब असमय हो गया था, अत: ' बैकालिक '' शब्द की योजना दश अध्ययनों के भाव से ' दश' शब्द के साथ की गई, जिससे इस सूत्र का नाम दशवैकालिक रक्‍्खा गया। यह नाम दश अध्ययनों का और सूत्र समाप्ति के समय का सूचक है, अतः यौगिक है। मंगलाचरण क्यों नहीं ? बहुत से सज्जन इस सूत्र के आदि मे मंगलाचरण न होने के विषय मे शंकित हैं, उनसे कहना है कि, यह सूत्र समग्र ही अक्षरश: मगल रूप है; क्योंकि यह निर्जरा का कारणभूत है, सर्वज्ञ प्रणीत है तथापि व्यावहारिक दृष्टि से इसमे भी आदि, मध्य और अन्त मे मगल विधान किया है। आदि मंगल ' धम्मो मंगल मुक्ति ' है, मध्य मंगल ' नाण दंसण संपन्न ' (६ अ*) है और अन्तिम मंगल ' निक्खममाणाइ य खुद्धबयणे ( १० अ० )' है । उक्त तीनों मंगलों से परपरागत यह भाव लिया जाता है कि, आदि मगल शास्त्र की विध्नोपशान्ति के लिए , मध्य मंगल प्रतिपाद्य विषयात्मक ग्रन्थ को स्थिरीभूत करने के लिए और अन्तिम मंगल शिष्य-शाखा में ग्रन्थ के अव्यवच्छेद रूप से पठन-पाठन के लिए किया जाता है। श्री जिनवाणी चार अनुयोगों में विभक्त है, चरण करणानुयोग-आचारांग आदि, धर्म कथानुयोग-सूत्र कृतांग आदि, गणितानुयोग-सुर्य प्रज्षसि आदि, और द्रव्यानुयोग-दृष्टिबाद आदि। अत: यह सूत्र प्रथम के चरणकरणानुयोग में होने से अतीव मगल रूप है, क्योंकि चरणानुयोग के बिना आगे के तीनों योग मुमुझ्ुओ के लिए प्राय: कार्य साधक नहीं । सार तत्त्व यही है।




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