विधवा विवाह जैन शास्त्रों का नहीं है | Vidhava Vivah Jain Shatrokta Nahi Hai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(श५ ) का मी पुषविवाद का अभौछ देता ता उसके छिये भी काई मुहूर्त बताते सा महडूर्त वतढाना ता दुर रहा उदटा उसके लिये त्रिचर्णा चार के १३वें अध्याष में १९६ से लेकर २०५ तक के १० इ़ा को मैं यह उपदेश दिया है कि था ता दिवाद आिव व शुललिका बन छोय पा चेघव्व दीक्षा घारण कर! दे चख्रों के सिधाय समस्त चस्राभूषणों का थ विकथा श्ूंगार भादि का त्याग करके शूदस्था- घस्था में ही धस साधन करे । यदि उनदें विधवा विवाह कराना अभी होता तो इन १० इढेकों के भागे १ श्ठेक इस आशय का भी छिख देते कि शिसी खी का यह घेंघब्य दीक्षा म लेनी देते फिसी से अपना दूलरा विधाइमी करले । परन्तु खेद है कि उनका विधवाओं पर दया नहीं आई भदीं ते जहां २३०० शलाक लिखे घह्दां १ घलेक के भर बढ़ा देने में फ्या जार आता था। परन्तु सारे श्रिवर्णवार में उत्तंच में भी ऐसा केई इलेक नहीं दिया गया । (४) गाछव जैन समाज के काई आचार्य या गरदद थे विद्वान ते होकर अन्यमत के ऋषि हैं उन्होंने वढियुग में पुरुषों के पुरुषाथ आदि को कमी देखकर या यह जानकर कि फछ़ियुग में हुराचारी पुरुष चिघ्वा खियों से भी काम सेवन को चेष्टा करेगे भौर कई 1घघघायें भी अज्ञान लाभ व विषय घासनाके कारण इनके चुगल में फंसकर पततिब्रत घर्म का नष्ट करदेंगी ऐसा विचार कर हिन्दुभां के कलियुग में पुरुषों का दूसरा विचाइ न करने की सम्मति दी है सा इस सम्मति ले जैन धर्म में काई बाधा नहीं आती जैन समाज की इससे काई हानि भी नहीं हेती भीर हम भी इस चातकी अब छइ्य से चाइते हैं कि ज्ञव जैन समाज में फन्याओं की कमी है ते! जिस पुरुष का १ चार दिपाइ हे गधा बह दूसरी वार विवाद न करे जिससे अन्य कुवारों के भी पीले दाथ हे। जावें। बतः हमें ते गाखचज्ी के उक्त कथन थे विरोध है नहीं हां यदि व्यपिवारियों या विधवा विवाद पोपकों को येद इपदेश चुरा ठगे है। दुखरी बात है । ल्न्न्न




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